रेणु गुप्ता की लघुकथाएँ एक सजग प्रहरी के समान चौकस

सामाजिक विडम्बनाओ को चित्रित करती हैं 

– कान्ता रॉय



लेखन की दुनिया में एक अलग प्रकार का परिवर्तन दिखाई देने लगा है| साक्षरता अभियान नेजिस तरह से पढ़े लिखों का समाज  तैयार कर दिया है, वह सुखद है| लोग अधिक से अधिक पढ़ रहें हैं, इसलिए समाज की वैचारिक पृष्भूमि मजबूत हुई है| अपने उदगार प्रकट करने के लिए लिखना भी बढ़ गया है, और जब चीजें लिखी जायेंगी तो उनका प्रकाशन तो लाज़मी है| आज वरिष्ठ लेखिका रेणु गुप्ता की पाण्डुलिपि मेरे हाथ आई है| पढ़ रही हूँ और संग संग गुन भी रही हूँ|

अखबार, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का सुनहरा दौर, सत्तर के दशक में पाठक के लिए प्रिंट मीडिया एक मात्र साधन था। पाठ्यक्रम की पुस्तकों की ओट में कॉमिक्स, कहानी, उपन्यासों का मन-मस्तिष्क पर पड़ते प्रभाव से जो बदलाव देखने को मिला, उसमें चमकदार जिंदगी की ख्वाहिश प्रमुख थी। उच्च शिक्षा और करियर की चिंता की गलियों में सह शिक्षा के दौरान अपनी पसंद के जीवन साथी के चुनाव में हस्तक्षेप करने के साहस से गार्जियनशिप उर्फ बच्चों के भाग्य विधाता का धीरे-धीरे पदच्युत होने के उपरांत युवा होते बच्चों से दोस्ती के लिए रिश्ते का आगे बढ़ना महत्वपूर्ण था। बदली हुई हवा में घर से बाहर निकल कर महिलाओं का अपने अस्तित्व के लिए संज्ञान लेना चमत्कार से कम नहीं था। थियेटर, रंगमंच और रूपहले पर्दों पर अपने मनपसंद हीरो हीरोइन से प्रभावित, जन्म लेती आधुनिक भारत की अगली पीढ़ी! राजनैतिक परिदृश्य में भी भारत में कई परिवर्तन देखने को मिल रहे थे। हिंदी साहित्य में सामंतवाद, आजादी की लड़ाई, देश के बंटवारे का दंश, स्वतंत्रता के बाद आजाद भारत का टूटता स्वप्न, इमरजेंसी का समय काल, आतंकवाद की त्रासद स्थितियों से जूझता हुआ, सूचना प्रौद्योगिकी और संचार के नए माध्यमों के साथ देश उदारीकरण की ओर बढ़ा, तो अपनी युवा चेतना से आत्मगौरव को प्राप्त करने लगा। आज भारत विश्व में एक मजबूत राष्ट्र के रूप में दिखाई देने लगा है। संचार क्रांति ने सूचनाओं को त्वरित गति से विचारों के आदान प्रदान में महती भूमिका निभाई है। रेणु गुप्ता ने बदलते दौर के सभी पड़ावों को करीब से महसूस किया है। उन्होंने करीब से देखा है कि संचार माध्यम ने मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों को सोशल मीडिया एवं प्रिंट मीडिया के जरिए पाठकों तक पहुंचाया है। दरअसल यहीं से वैश्विक स्तर पर हिंदी साहित्य का अद्भुत विकास देखने को मिला। सभी विधाओं के लिए सोशल मीडिया में विभिन्न प्रकार के मंच व पेज बनाए गए हैं। कहानी, कविता, संस्मरण, कविता, गीत-गज़ल सहित रिपोर्ताज के लिए साहित्यकार संगठित होकर काम कर रहे हैं। नए और पुराने रचनाकार एक साथ लेखन और पठन पाठन में लिप्त हैं। सोशल मीडिया ने एक तरफ जहां लाईक की संख्या को लेकर एक बेतुका सा प्रोत्साहन दिया है, तो वहीं दूसरी ओर इस बात से चिंतित सजग रचनाकारों ने चर्चा और विमर्श को महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। साहित्य में आलोचना के महत्व पर खुल कर बात की जा रही है। शास्त्रीय पहलुओं पर जितनी चर्चा सोशल मीडिया एवं वेबसाइटों पर की जा रही है, उतनी उससे पहले नहीं की गई थी। नए लेखकों को इससे उचित मार्गदर्शन मिलता है। साहित्य को लेकर अब सामान्य वर्ग का पाठक भी संजीदगी से पेश आता है।

इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक आते आते लघुकथा ने नई दिशा में कदम रखा था। इस तीसरे दशक में रेणु गुप्ता द्वारा प्रस्तुत ‘आधा है चन्द्रमा’ लघुकथा संग्रह एक मुक्कमल पुस्तक के रूप में अपनी उपादेयता बनाये रखने में अपना योगदान दे रही है| लेखिका महिलाओं की समस्याओं को प्रतिबिंबित करने में सफल तो हैं ही, साथ ही यह लेखन का एक महत्वपूर्ण पहलु बन कर उभर रहा है| शस्य श्यामला जैसी लघुकथा को लीजिये, वह प्रवासियों का अपने देश के प्रति सम्मान और मोह को शब्दों में किस तरह से बयां कर रहीं हैं,

//उसने सरदारजी को रोक कर कहा, “सरदारजी, टाइम्स स्क्वैयर चलना है।”

“अपनी ही गड्डी समझो जी, चलो बैठो आराम से।”

गाड़ी में घुसते ही हवा में तैरती एक सौंधी सी महक उसके नथुनों से टकराई, और तभी उसकी नज़रें

सामने डैशबोर्ड पर पड़ीं, और वह उत्सुकता से भर उठा।

वहां एक छोटा सा गमला रखा था और उसमें चटक सब्ज़ नन्हे नन्हे पौधे लहरा रहे थे।

“अरे सरदारजी, ये जंगल में मंगल कैसे कर रखा है आपने? क्या उगा रखा है आपने इस गमले में?”

“किसान का बेटा हूँ जी, यूं समझो, हरे भरे खेतों में ही आँखें खोली मैने। आते वक़्त थोड़ी सी अपने देश की मिट्टी किसी तरह छिपा कर ले आया था। उसे ही यहाँ की मिट्टी में मिला कर ये मक्का उगा रखी है जी मैंने। जब भी वतन की याद सताती है, अपनी इस पुरसुकून दुनिया को नज़र भर कर देख लेता हूँ। दिल को बेहद करार मिल जाता है।” टाइम्स स्क्वैयर आ पहुंचा था। अबीर ने एक बार फिर सरदारजी के उस सब्ज़ सपने पर निगाह डाली। उसे भी उसमें अपनी शस्य श्यामला भूमि की प्रतिच्छाया दिखी। उसे देख इस बेगाने मुल्क में न जाने क्यूँ उसका गला भर सा आया।// इसे पढ़ते हुए पाठक के मन में अपनी मातृभूमि के प्रति संवेदना जगती है|

‘बदलाव की बयार’ बेटियाँ कभी पराई नहीं होतीं हैं, को मुखरित करती है| ‘रूहानी सुकून’ में फौजी जीवन के संघर्ष के बीच परिवार, दूधमुहें बच्चे और पत्नी का मोह, ‘कद्दावर’ लघुकथा में बर्तन, झाड़ू-पोंछा करने वाली पांच बच्चों की मां, यहाँ इसकी बानगी देखते ही बनती है, 

//विधवा रज्जी आगे आई। बच्ची को उठाकर बड़ी ममता से अपने कलेजे से लगाते हुए उसने कहा, “कोई पुलिस को बुलाने की जरूरत नहीं है, मैं पालूंगी इस नन्ही सी जान को। जहां पांच पल रहे हैं, वहां एक और सही।” सभी लोग नज़रें झुकाए वहां से खिसक लिए। मुझे लगा, रज्जी का कद हम सब से बहुत ऊंचा हो आया था।// लघुकथाएँ प्रहार करती हैं क्योंकि वह समाज की सजग प्रहरी है| 

‘मुझे न्याय चाहिए’ जैसी लघुकथा पुलिस तंत्र की ढीली नसों पर प्रहार करती व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति है| रेणु गुप्ता की लघुकथाएँ एक सजग प्रहरी से समान चौकस सामाजिक विडम्बनाओं को चित्रित करती हैं| ‘फ़रिश्ते’ किन्नर समुदाय को केंद्र में रखकर बुनी गयी है| गरीब की बेटी के यहाँ शगुन मांगने आये किन्नरों में मानवीय संवेदनाओं को भलीभांति दिखाया गया है| ‘मिट्टी या सोना?’ अति संवेदनशील विषय पर लिखी गयी है| धार्मिक श्रद्धा पर देहदान करने की बात सामाजिक उजास को दर्शाती है| जिस देश के राष्ट्र पिता महात्मा गांधी हो उस देश में जाति भेद, रंग भेद कलुषित मानसिकता का परिचायक है| ‘दस बाई बारह’ लघुकथा वर्गभेद की कसौटी पर कसी एक संवेदनशील रचना है|

‘दिशा’ लघुकथा बताती है कि प्रकृति में जीवन जीने के सूत्र छिपे हुए हैं, इसी सूत्र को लेकर लेखिका इस लघुकथा को रचतीं हैं| चिड़िया के एक नन्हें से बच्चे से किस तरह राह मिलती है, इस बात को लघुकथा परिभाषित करती है| पारिवारिक जीवन का व्यवहार, दिनचर्या से निकल कर आती लघुकथाओं में जीवन का सार छुपा हुआ दिखाई देता है| ऐसी लघुकथाएँ पाठकों को बेहद पसंद आती है, कारण कि ये उनके दैनिक जीवन के करीब महसूस होती हैं| क्या जिनके पास समुचित संसाधन हैं, वे सर्वसुखी हैं? सुख का अभिप्राय क्या है? बेटियों की शादी ब्याह पर भारी पड़ती दहेज़ की चिंता को दरकिनार कर ‘तरावट’ जैसी लघुकथाएँ जीवन के सार्थक मायने स्थापित करती है|

‘सारे जहान की खुशियां’ की उदास मौली,  दुविधा लघुकथा की मन्नी और स्वार्थ के वशीभूत होकर दान धर्म करने वाले परमार्थ की पहचान करे कैसे भला? ‘जलजला’ नेताओं के आने जाने से रोड जाम की त्रासदी झेलती जनता की आवाज है| सत्तासीनों को बुलंदी पर पहुँचाने वाली आम जनता से उसके नेताओं की दूरी विवेचना का विषय तो है ही| ऐसी लघुकथाएँ साबित करती हैं, कि बड़े पद वालों को अयोग्य व चापलूसों से घिरना पड़ता है! लेखक के आचरण और स्वभाव का असर उनकी रचनाओं पर दिखाई पड़ता है| लेखिका सादगी पसन्द और विनम्र स्वभाव की हैं, यही कारण है कि वे विसंगतियों पर प्रहार करते हुए सुसंस्कारित भाषा का प्रयोग करती दिखाई देती हैं| लघुकथा में भाषा के साथ दर्शन बोध, आध्यात्मिकता को स्थापित करते हुए मौलिक चिंतन को भी प्रश्रय मिला  है| एक अध्ययनशील लेखक का दायित्व इस पुस्तक के रूप में निर्वहन होता दिखाई देता है| मैं इस कृति की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए अपनी शुभकामानाएँ प्रेषित करती हूँ|


कान्ता रॉय 

निदेशक 

लघुकथा शोध केंद्र 

प्रधान संपादक 


लघुकथा वृत्त 

प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर 

प्रवासी भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध केंद्र 

रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, भोपाल 

मो. 9575465147

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