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  जीवन से साहचर्य स्थापित करती लघुकथाएँ  बहुत ही ख़ुशी की बात है कि मेरी प्रिय बहिन श्रीमती मिन्नी मिश्रा अपना प्रथम लघुकथा संग्रह लेकर आ रहीं हैं| अल्प समय में ही मिन्नी मिश्रा हिन्दी साहित्य के एक उदीयमान लेखिका से कहीं आगे निकल चुकी हैं। वे मौलिक सृजन के साथ ही अनुवाद और समीक्षा के कार्यों में संलग्न रहती हैं| यह देखने में आता है कि आप विशेष रूप से हिंदी से मैथिली में अनुवाद का कार्य महत्वपूर्ण ढंग से कर रहीं हैं| मैंने इस पुस्तक में संगृहीत रचनाओं को ध्यान से देखा और पढ़ा है| अवलोकन करते हुए महसूस हुआ कि आपमें वैचारिक दृष्टि सम्पन्नता है| आप लिखने से पहले चीजों पर विचार करतीं हैं| तथ्यों की पुष्टि करती हैं तत्पश्चात आप लघुकथा के लिए प्रयास करती हैं| पुस्तक की लघुकथाएँ विस्तृत अध्ययन-शीलता के पूर्ण परिचायक हैं। आपकी शैली सर्वत्र ही सरल, सुबोध तथा स्पष्ट है। लेखिका के सूक्ष्म विश्लेषण की शक्ति की झलक इसमें सर्वत्र ही दिखलाई देती है।  लघुकथा पर कार्य करते हुए अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला है जो अधिक से अधिक समय अन्य गतिविधियों में, अनेकों मंच से जुड़ कर आत्म प्रचार में जुटे रहते हैं|
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रेणु गुप्ता की लघुकथाएँ एक सजग प्रहरी के समान चौकस सामाजिक विडम्बनाओ को चित्रित करती हैं  – कान्ता रॉय लेखन की दुनिया में एक अलग प्रकार का परिवर्तन दिखाई देने लगा है| साक्षरता अभियान नेजिस  तरह से पढ़े लिखों का समाज  तैयार कर दिया है, वह सुखद है| लोग अधिक से अधिक पढ़ रहें हैं,  इसलिए समाज की वैचारिक पृष्भूमि मजबूत हुई है| अपने उदगार प्रकट करने के लिए लिखना भी बढ़  गया है, और जब चीजें लिखी जायेंगी तो उनका प्रकाशन तो लाज़मी है| आज वरिष्ठ लेखिका रेणु गुप्ता की पाण्डुलिपि मेरे हाथ आई है| पढ़ रही हूँ और संग संग गुन भी  रही हूँ| अखबार, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का सुनहरा दौर, सत्तर के दशक में पाठक के लिए प्रिंट मीडिया एक मात्र साधन था। पाठ्यक्रम की पुस्तकों की ओट में कॉमिक्स, कहानी, उपन्यासों का मन-मस्तिष्क पर पड़ते प्रभाव से जो बदलाव देखने को मिला, उसमें चमकदार जिंदगी की ख्वाहिश प्रमुख थी। उच्च शिक्षा और करियर की चिंता की गलियों में सह शिक्षा के दौरान अपनी पसंद के जीवन साथी के चुनाव में हस्तक्षेप करने के साहस से गार्जियनशिप उर्फ बच्चों के भाग्य विधाता का धीरे-धीरे पदच्युत होने के उपरांत युवा हो

कान्ता रॉय से डॉ.विकास दवे की बातचीत

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 बातचीत कान्ता रॉय से डॉ.विकास दवे की बातचीत डॉ.विकास दवे : लघुकथा के परिदृश्य में आपका प्रवेश कब और कैसे हुआ? यह विधा आपके दिल के इतने नजदीक की विधा कैसे बन गई? कान्ता रॉय : लघुकथा के परिदृश्य में मेरा प्रवेश अनजाने में ही हुआ। यह मेरे जीवन की दूसरी बड़ी घटना थी / है, जो घटता चला जा रहा है। लघुकथा में प्रवेश सन 2014 में हुआ। मेरा प्रारब्ध मुझे यहाँ खींच लाया। मैं बचपन से लेखन करती थी, लेकिन वह दिनचर्या से जुड़े सुख-दुःख के अनुभव थे जो डायरी तक सीमित रहा। जिन चीज़ों को पढ़ती थी, उन पर एक प्रतिक्रिया निकल कर आती थी। वे प्रतिक्रियाएं समीक्षात्मक होतीं थी। वृहद, तर्कसंगत शायद अकाट्य भी होतीं थीं, तो इस कारण लोगों की नजरों में चढ़ गईं। इसके बाद लेखक अपनी रचनाएँ मुझे भेजने लगे। रचनाओं पर प्रतिक्रिया / मत जानने के लिए समीक्षा माँगने लगे, इस तरह धीरे-धीरे रचनाकार मुझसे उम्मीदें रखने लगे। समीक्षात्मक टिप्पणियों के अंतर्गत ही कुछ जवाबी रचनाएँ तैयार हुईं जो लघुकथा के मापदंड में फिट बैठती थीं। वे लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं और इस दिशा में मेरा हौसला बढ़ता चला गया।  यह विधा मेरे दिल के नजदीक की विधा इ

कान्ता रॉय से संतोष सुपेकर की बातचीत

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  कान्ता रॉय से संतोष सुपेकर की बातचीत  संतोष सुपेकर  - समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत चुके हैं, लघुकथा को आप आज कहाँ पाती हैं? कान्ता रॉय  – आश्चर्य होता है उन पचास सालों पर जो बीत चुके हैं| पचास साल कम तो नहीं होते है न! मेरे इस आश्चर्य करने के पीछे कई कारण हैं| समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी लघुकथा अपना प्रथम पायदान पार नहीं कर पाई} अब तक वह प्रथम चरण में ही अटकी हुई है| यह जरूर है कि लघुकथा को पहचान मिल गई| आज पाठक और लेखक दोनों लघुकथा और कहानी में फर्क समझने लगे हैं| कथा साहित्य में लघुकथा ने अपना स्थान अपनी पहचान बना तो ली है लेकिन यह सिर्फ अभी लेखकों और पाठकों तक ही सीमित है| पचास वर्ष आंदोलन के बीत जाने के बाद भी यह विश्वविद्यालय तक नहीं पहुंच पाई है| राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह अकादमी में गरिमापूर्ण तरीके से अपना स्थान नहीं बना पायी है| दिल्ली में सन 2016 में रचनापाठ का एक आयोजन हुआ भी लेकिन फिर उसे दुबारा नहीं बुलाया गया| इसके पीछे के कारणों को तलासना होगा| आखिर हम कहाँ और क्यों छूट रहें हैं! मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा जैनेन्द्र कुमार के नाम से पचास ह

स्त्री शिक्षा : एक गहन विषय

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  स्त्री शिक्षा : एक गहन विषय कान्ता राॅय मो. 9575465147 शारदा एक सरकारी दफ्तर में कर्मचारी है। उसकी तीन लड़की है। जैसा कि भारत में आम तौर पर देखा जाता है, उसके परिवार में भी बड़ों, बुजुर्गों का बोलबाला है। यही कारण था कि घर के बड़ों ने उसकी बड़ी लड़की जो मात्र सोलह साल की थी, उसकी शादी तय कर दी गई। और इसके लिए लड़की की माँ की मरजी जानने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई। शारदा मन ही मन अपनी विवशता पर कुढ़ उठी।   मेरे समझाने पर उसने अपने घर में इस बात का विरोध किया और शादी रुकवा दी। अचानक से उसके इस फैसले ने घर के लोगों को हैरानी में डाल दिया था। इस बात को पांच वर्ष बीत गए हैं। उसकी लड़की अभी एम. बी.ए. कर रही है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि स्त्री-शिक्षा के मायने क्या है? क्या यह नारी के आत्मसम्मान का प्रश्न है?  स्त्री को स्वयं अपने जीवन के मायने  तय करने  होंगे। क्योंकि दूसरों पर निर्भरता को कम करना होगा। नारी शिक्षा को लेकर समाज जागरूक अवश्य हुआ है, लेकिन सोच का स्तर में सुधार की अभी बहुत गुंजाईश बाकी है।  शहरों के अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों में अभी  जागरू
  परिंदे वृत्त परिशिष्ट

ऐसी कृतियाँ अलख जगाने का काम करती है

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  ऐसी कृतियाँ अलख जगाने का काम करती है : कान्ता रॉय समंदर प्राण अकुलाया! : रविन्द्र भट्ट हिन्दी अनुवाद: डॉ. प्रतिभा गुर्जर प्रकाशन: स्वराज संस्थान संचालनालय , संस्कृति विभाग , मध्यप्रदेश शासन   पुस्तक समीक्षा: कान्ता रॉय   समंदर प्राण अकुलाया! रविन्द्र भट्ट की कृति में समंदर की अकुलाहट में तीव्र वेदना महसूस की जा सकती है। वर्तमान समय में चारों तरफ जब माहौल दुषित होकर भ्रष्ट हो रहा है ऐसे वक्त में ऐसी कृतियाँ अलख जगाने का काम करती है। मराठी भाषा में लिखी गयी इस क्रांतिपर्व की इस गाथा को हिन्दी रूपान्तर कर डॉ. प्रतिभा गुर्जर ने हिन्दी साहित्य को समृद्धि दी है इस बात में जरा भी दो राय नहीं। अनुभव और यथार्थ के धरातल पर रचि गयी यह उपन्यास विनायक दामोदर सावरकर के कवि मन संग्राम को चित्रित करता है।  14-15 साल के युवक का "भारत के स्वातंत्र्य के लिए मारते-मारते मरने तक जुझूँगा।" जैसी शपथ लेने को जिस सम्प्रेषनीयता से उभारा गया है , पढ़कर  हृदय में हुँकार भर देता है। अन्याय के विरूद्ध मन ललकार से भर जाता है। शब्दों में ऐसी क्षमता कि विचारों में फूँक डालने के काबिल कृति