लघुकथा क्या है : कांता रॉय कई दिनों से बड़ी अजब-गज़ब पोस्ट पढने को मिल रहीं है! पिछले सवा सौ साल की समृद्धियों को समेटती इस विधा पर इतना संदेह, आखिर क्यों? इतने शोध लोगों ने किये है इस विधा पर, अलग-अलग राज्यों में इतने सम्मलेन, इतने सम्मान, इतनी पत्र-पत्रिकाएं जो दसकों से विधा के विकास में अपना सहयोग दे रही है उन सबको अनदेखा कर इस तरह की बातें! कहीं इन बातों के पीछे उनकी विधा के प्रति अज्ञानता या पाठन का अभाव तो नहीं? बात शायद बहुत बड़ी कह गयी हूँ, लेकिन मजबूर हुए हम मनन के लिए. खैर, आज के सन्दर्भ में इतना ही कहूँगी कि लघुकथा एक स्थापित विधा है. इसका अपना एक विराट दायरा है. इस पर अब तक बहुत काम हुए हैं और आगे भी ये अपनी समृद्ध परम्परा को बनाए रहे इसके लिए लगातार काम होते रहना बेहद जरूरी है. हमारे साथियों के लिए लघुकथा सन्दर्भ में कुछ बातें प्रस्तुत है जो समझाती है कि लघुकथा क्या है! लघुकथा-विधा पर काम करते हुए अब तक जितना मैंने जाना है कि हिन्दी गद्य साहित्य की यह सबसे तीक्ष्ण कलम है, जिसमें कम से कम शब्दों में एक गहरी बात कहना होता है जिसको पढ़ते ही झटके से पाठक मन चिंतन के लिए उद्वेलित
कान्ता रॉय से संतोष सुपेकर की बातचीत संतोष सुपेकर - समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत चुके हैं, लघुकथा को आप आज कहाँ पाती हैं? कान्ता रॉय – आश्चर्य होता है उन पचास सालों पर जो बीत चुके हैं| पचास साल कम तो नहीं होते है न! मेरे इस आश्चर्य करने के पीछे कई कारण हैं| समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी लघुकथा अपना प्रथम पायदान पार नहीं कर पाई} अब तक वह प्रथम चरण में ही अटकी हुई है| यह जरूर है कि लघुकथा को पहचान मिल गई| आज पाठक और लेखक दोनों लघुकथा और कहानी में फर्क समझने लगे हैं| कथा साहित्य में लघुकथा ने अपना स्थान अपनी पहचान बना तो ली है लेकिन यह सिर्फ अभी लेखकों और पाठकों तक ही सीमित है| पचास वर्ष आंदोलन के बीत जाने के बाद भी यह विश्वविद्यालय तक नहीं पहुंच पाई है| राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह अकादमी में गरिमापूर्ण तरीके से अपना स्थान नहीं बना पायी है| दिल्ली में सन 2016 में रचनापाठ का एक आयोजन हुआ भी लेकिन फिर उसे दुबारा नहीं बुलाया गया| इसके पीछे के कारणों को तलासना होगा| आखिर हम कहाँ और क्यों छूट रहें हैं! मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा जैनेन्द्र कुमार के नाम से पचास ह
रेणु गुप्ता की लघुकथाएँ एक सजग प्रहरी के समान चौकस सामाजिक विडम्बनाओ को चित्रित करती हैं – कान्ता रॉय लेखन की दुनिया में एक अलग प्रकार का परिवर्तन दिखाई देने लगा है| साक्षरता अभियान नेजिस तरह से पढ़े लिखों का समाज तैयार कर दिया है, वह सुखद है| लोग अधिक से अधिक पढ़ रहें हैं, इसलिए समाज की वैचारिक पृष्भूमि मजबूत हुई है| अपने उदगार प्रकट करने के लिए लिखना भी बढ़ गया है, और जब चीजें लिखी जायेंगी तो उनका प्रकाशन तो लाज़मी है| आज वरिष्ठ लेखिका रेणु गुप्ता की पाण्डुलिपि मेरे हाथ आई है| पढ़ रही हूँ और संग संग गुन भी रही हूँ| अखबार, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का सुनहरा दौर, सत्तर के दशक में पाठक के लिए प्रिंट मीडिया एक मात्र साधन था। पाठ्यक्रम की पुस्तकों की ओट में कॉमिक्स, कहानी, उपन्यासों का मन-मस्तिष्क पर पड़ते प्रभाव से जो बदलाव देखने को मिला, उसमें चमकदार जिंदगी की ख्वाहिश प्रमुख थी। उच्च शिक्षा और करियर की चिंता की गलियों में सह शिक्षा के दौरान अपनी पसंद के जीवन साथी के चुनाव में हस्तक्षेप करने के साहस से गार्जियनशिप उर्फ बच्चों के भाग्य विधाता का धीरे-धीरे पदच्युत होने के उपरांत युवा हो