जीवन से साहचर्य स्थापित करती लघुकथाएँ 



बहुत ही ख़ुशी की बात है कि मेरी प्रिय बहिन श्रीमती मिन्नी मिश्रा अपना प्रथम लघुकथा संग्रह लेकर आ रहीं हैं| अल्प समय में ही मिन्नी मिश्रा हिन्दी साहित्य के एक उदीयमान लेखिका से कहीं आगे निकल चुकी हैं। वे मौलिक सृजन के साथ ही अनुवाद और समीक्षा के कार्यों में संलग्न रहती हैं| यह देखने में आता है कि आप विशेष रूप से हिंदी से मैथिली में अनुवाद का कार्य महत्वपूर्ण ढंग से कर रहीं हैं| मैंने इस पुस्तक में संगृहीत रचनाओं को ध्यान से देखा और पढ़ा है| अवलोकन करते हुए महसूस हुआ कि आपमें वैचारिक दृष्टि सम्पन्नता है| आप लिखने से पहले चीजों पर विचार करतीं हैं| तथ्यों की पुष्टि करती हैं तत्पश्चात आप लघुकथा के लिए प्रयास करती हैं| पुस्तक की लघुकथाएँ विस्तृत अध्ययन-शीलता के पूर्ण परिचायक हैं। आपकी शैली सर्वत्र ही सरल, सुबोध तथा स्पष्ट है। लेखिका के सूक्ष्म विश्लेषण की शक्ति की झलक इसमें सर्वत्र ही दिखलाई देती है। 

लघुकथा पर कार्य करते हुए अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला है जो अधिक से अधिक समय अन्य गतिविधियों में, अनेकों मंच से जुड़ कर आत्म प्रचार में जुटे रहते हैं| मिन्नी जी एक साधक की तरह अपने रचनात्मक कार्यों को गतिमान रखती हैं| वाद विवादों से दूर रहकर साधनारत दिखाई देती हैं|

आमजन की लघुकथाएँ उन्हीं की भाषा में कहती हुई वे जिस विषय को उठाती हैं उसमें ताज़गी होती है, वह अभूतपूर्व होता है| चित्र कथा के समान कथा इस तरह से आगे बढ़ती है जैसे बनावट, बुनाहट बिल्कुल भी न हो। 

हिन्दी कथा साहित्य में उपन्यास, कहानी के बाद तीसरी विधा के रूप में स्थापित लघुकथा प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में विद्यमान रही है। वेदों में ऋचाओं से प्रारम्भ होती हुई व्रत कथाओं, पौराणिक प्रसंगों में लघुकथा परोक्ष रूप में उपस्थित रही| लघुकथा की अपनी एक विशेष प्रकार की भाषा-प्रकृति है जिसमें संकेतों का सर्वाधिक महत्व है| यह कथ्य के आधार पर इकहरी विधा है| एक प्रसंग, एक चित्र को एक कालखंड में लघुकथा का समावेश होना चाहिए| कथ्य की संक्षिप्तता और आकार में लघुता ही इस विधा का मूल आधार है| इस विधा में लेखन करते हुए विवरण से बचना चाहिए| कथा वस्तु अथवा चरित्र वर्णन से लघुकथा अपना कलेवर खो देती है| लघुकथा के इस विकास में विभिन्न परिस्थितियों का प्रधान भाग रहा है। सामाजिक क्षेत्र में जब विचारधाराओं का परस्पर संघर्ष हो रहा था। वर्त्तमान में भूमंडलीकरण के प्रभाव में संस्कृतियाँ और संस्कारों का आयत भरी मात्रा में हो रहा है| संस्कारों के इस संक्रमणकाल में हिन्दु संस्कृति अपनी पूर्णता और प्राचीन परम्पराओं के साथ अपने अस्तित्व की रक्षा करने का प्रयत्न कर रही है| नवीन तकनीकी ताकतों का भी अपना एक उन्माद है| व्यावहारिक होने की परिभाषा ‘Be Practical’ पारंपरिक भारतीय जीवन शैली को प्रभावित करते हुए हावी हो रही है। कथित आधुनिकता की इस होड़ में मनुष्यता को भूल मानव मशीन में परिवर्तित होने की कगार तक पहुँच रहा है। स्वः के प्रति मोह ने भारतीयों के सामाजिक बन्धन हड़ लिए हैं। इसलिए आज इस सामाजिक संकीर्णता के आवरण में मनुष्यता गौण होती दिखाई पड़ती है। ऐसी परिस्थिति में आध्यात्मिकता, वैचारिकता एवं चैतन्यता को बल देने वाली सृजन की आवश्यकता दिखाई पड़ती है या यूँ कहें कि यही एक मात्र रास्ता दिखाई देता है| 

विभिन्न सामाजिक विषयों पर लिखी गयी इस लघुकथा संग्रह की उपादेयता को इस लिहाज से महती योगदान के रूप में देखा जा सकता है| कहने का अर्थ यह है कि लघुकथा अध्ययन मांगती है और साहित्य के साथ लेखिका का प्रत्यक्ष लगाव दिखाई देता है। 

इस पुस्तक की लघुकथाओं में कथ्य का भाव पक्ष प्रबल वेग से क्यों प्रवाहित हो उठता है इस बात को समझने के लिए इन लघुकथाओं को ठहर कर अध्ययन की दृष्टि से पढ़ना होगा|  इसी सन्दर्भ में अब कुछ लघुकथाओं पर चर्चा करते हुए ‘अंतरजातीय विवाह’, ‘अपशकुन’, ‘अम्मा का फैसला’, ‘अर्धांगिनी’, ‘अहम’, ‘आजाद’, ‘आस्तीन का सांप’, ‘आस’, ‘इंसानियत ही धर्म है’, ‘ईमान का पलड़ा’ इत्यादि लघुकथाओं पर विशेष ध्यान चाहूँगी| जैसे कि लघुकथा में ‘अंतरजातीय विवाह’ की स्वीकार्यता को स्थापित करने की कोशिश करती हैं वहीँ मिट्टी के बर्तन को सूतक लगने पर फेंक देने जैसी रूढ़ मान्यताओं को दूर करने हेतु लेखिका तर्कसंगत तरीके से रेखांकित करती हैं।

‘अम्मा का फैसला’ पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित एक कड़वा सच है। स्त्री ही अगर स्त्री के दुख और उसके अकेलेपन को न समझ पाए तो परिवार का ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था भी चरमरा जाएगी। स्त्री जन्मदात्री है, ममता की पोषक है। नौ महीने गर्म को पोषण देने वाली स्त्री अगर ममत्व को त्याग दे तो वह स्त्री कहलाने की हकदार नहीं हैं। इसी तरह ‘अर्द्धांगिनी’ लघुकथा आत्म गौरव को प्राप्त एक महत्वपूर्ण रचना है। जीवन के लिए जीवन के उत्सर्ग की ही नहीं बल्कि यह नई रौशनी की भी कथा है। पति पत्नी के बीच ‘अहम’ किस प्रकार से दाम्पत्य जीवन में क्लेश लेकर आता है इस बात को रेखांकित करते हुए लेखिका जीवन में साहचर्य स्थापित करती हैं|

‘आजाद भारत’ में दोहरे आचरण को केन्द्र में रखा गया है। भारत के नागरिक ही आजाद भारत के निर्माणकर्ता है और अगर निर्माणकर्ता के नीयत में ही खोट हो तो भारत क्या कभी आजाद हो पाएगा? यह प्रश्न मन को बेचैन करता है। रोजगार के लिए अपने गाँव से दूर प्रवासियों के दर्द को बयां करती है यह लघुकथा। आम, लीची, अमरूद के बाग, दूर तक लहलहाते धान के खेत से बिछोह हृदय में किस प्रकार से टीस जगाती है, इस बात को पेड़ों की बातचीत के माध्यम से बखूबी उभारा है।

‘आस्तीन का सांप’ कई सवालों को लेकर खड़ा हुआ है। भारतीय संस्कार में रिश्तों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। ऐसे परिवेश में जब इस तरह की विसंगतियां दिखाई देती है तो हम स्तब्ध रह जाते हैं। इस लघुकथा में बहन के साथ बलात्कार करने की कोशिश करने वाला भाई क्या अकेला कसूरवार है? क्या वह समाज और परिवार कसूरवार नहीं है जिसमें ऐसी परवरिश दी है। एक अबोध बच्चे के बड़े होने में क्या उसकी शिक्षा का हाथ नहीं है? दरअसल यह लघुकथा हमें अपने गिरेबान में झांकने को मजबूर करती है।

‘इंसानियत ही धर्म है’ लघुकथा का उद्देश्य अच्छा है लेकिन बुनावट ढीली रह गई है। सामान्य दिनचर्या से ताल्लुक रखने वाला 'ईमान का पलड़ा' दो संवादों में सिमटी एक महत्वपूर्ण लघुकथा है।

‘उजाले की ओर’ प्रतीकों के माध्यम से एक उम्दा लघुकथा है जिसमें अंधियारे से लड़ता हुआ प्रकाश अंततः विजय को प्राप्त करता है| इसकी एक पंक्ति को यहाँ उद्घृत करना चाहूंगी जो इस प्रकार से है कि,

“वाह! अजीब आदमी है। प्रकाश से सम्पूर्ण जगत चलता है और इसे देखो, मुझे मेरे ही कमरे में घुसने से

मना कर रहा है ! हे भगवान ! यहाँ घुप अँधेरा है! हाथ का हाथ नहीं सूझता!” विरोध होने के बावजूद प्रकाश तेजी से कमरे में प्रवेश कर गया।

‘भौकना जरूरी है’ में कुत्ते और बिल्ली के बीच हुए संवादों के सार को कथ्य के रूप में चुना गया है| बिल्ली के यह पूछने पर कि तुम इतना भौंकते क्यों रहते हो इसके जवाब में कुत्ते का उत्तर के माध्यम से लघुकथा में प्रतिरोध को स्वर दिया गया है कि, “क्या करूँ मौसी ! आजकल बिना भौंके कोई रास्ता छोड़ने को तैयार ही नहीं होता !”

इन्हीं विविधताओं के क्रम में कीचड़ में कमल, क्रेडिट कार्ड, खास दोस्त, खुराक, गज़रे वाली रात, गरीबी में ताकत, गर्भपात, होशियार घरनी, शशि तू किधर चली, समय प्रबंधन, विजेता, वेदना, प्रकृति नटी इत्यादि लघुकथाओं के माध्यम से नवीनतम कथ्य लिए पारंपरिक विचारों पर तत्पर कलम की नूतन-पुरातन संघर्ष को देखा जा सकता है| सामाजिक और पारिवारिक विमर्शों के साथ मिन्नी मिश्रा की लघुकथाओं में स्त्री विमर्श प्रमुखता से खड़ी दिखाई देती है| आखिर क्यों न हो! स्मरण रहे कि आदर्शों के आडम्बर को परे रखकर एक स्त्री ही नारी जीवन के संघर्षों के पूरे सच को सही मायनों में व्याख्यायित कर सकती है|  मिन्नी मिश्रा की लघुकथाएँ सरल बोलचाल लिए हुए है|

उनकी लघुकथाओं की भाषा में पुरबीपन और शिष्टता सौन्दर्य को बढ़ाता है| यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यथार्थ के जमीन पर जीवन और साहित्य के बीच विच्छेद को दूर करने वाली विधा लघुकथा है| उनके द्वारा लिखी हुई ये रचनाएँ समाज के लिए उपयोगी साबित होंगी ऐसा मेरा विश्वास भी है|


कान्ता रॉय 

निदेशक 

लघुकथा शोध केंद्र समिति, भोपाल

प्रधान संपादक 

लघुकथा वृत्त

मो.9575465147

ईमेल : roy.kanta69@gmail.com  


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