कान्ता रॉय से डॉ.विकास दवे की बातचीत

 बातचीत


कान्ता रॉय से डॉ.विकास दवे की बातचीत


डॉ.विकास दवे : लघुकथा के परिदृश्य में आपका प्रवेश कब और कैसे हुआ? यह विधा आपके दिल के इतने नजदीक की विधा कैसे बन गई?

कान्ता रॉय : लघुकथा के परिदृश्य में मेरा प्रवेश अनजाने में ही हुआ। यह मेरे जीवन की दूसरी बड़ी घटना थी / है, जो घटता चला जा रहा है। लघुकथा में प्रवेश सन 2014 में हुआ। मेरा प्रारब्ध मुझे यहाँ खींच लाया। मैं बचपन से लेखन करती थी, लेकिन वह दिनचर्या से जुड़े सुख-दुःख के अनुभव थे जो डायरी तक सीमित रहा। जिन चीज़ों को पढ़ती थी, उन पर एक प्रतिक्रिया निकल कर आती थी। वे प्रतिक्रियाएं समीक्षात्मक होतीं थी। वृहद, तर्कसंगत शायद अकाट्य भी होतीं थीं, तो इस कारण लोगों की नजरों में चढ़ गईं। इसके बाद लेखक अपनी रचनाएँ मुझे भेजने लगे। रचनाओं पर प्रतिक्रिया / मत जानने के लिए समीक्षा माँगने लगे, इस तरह धीरे-धीरे रचनाकार मुझसे उम्मीदें रखने लगे। समीक्षात्मक टिप्पणियों के अंतर्गत ही कुछ जवाबी रचनाएँ तैयार हुईं जो लघुकथा के मापदंड में फिट बैठती थीं। वे लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं और इस दिशा में मेरा हौसला बढ़ता चला गया। 

यह विधा मेरे दिल के नजदीक की विधा इसलिए भी हुई कि इस विधा के जरिए मैं उन बातों को रेखांकित कर पाई जिनसे मेरे सिद्धांत टकरा कर चोटिल हुए थे। मेरे लिए समाज से संवाद स्थापित करने का यह एक सशक्त जरिया बनी। लघुकथा मेरी संवेदनाओं को पूरी तरह से अभिव्यक्त करने में सफल थी, इस कारण भी यह मेरे दिल के नजदीक की विधा बन गई।


डॉ.विकास दवे : आपके जीवन से जब बावस्ता होते हैं तो पता चलता है कि बहुत सारी कठिनाइयों में से निकल कर आप बाहर आई हैं। तो जीवन के कठिन क्षणों में साहित्य आपके जीवन का सहारा कैसे बना?

कान्ता रॉय : जीवन के कठिन क्षणों में जब आसपास कोई मन को समझने वाला नहीं होता है, जब आप खुद को साबित नहीं कर पाते हैं, अकेलेपन से जूझते रहते हैं, ऐसा पल किसी भी व्यक्ति के जीवन का सबसे कठिन होता है। घर के बाहर या भीतर, आप जब प्रायोजित तरीके से गलत आकलन किए जाने लगते हैं तब मन छटपटाता है। मेरी उस छटपटाहट को सहारा दिया साहित्य ने| अन्य विषयों पर जितनी वाचाल हूँ अपनी समस्याओं पर उतनी ही चुप। कह सुनकर, जताकर खुद को अभिव्यक्त करने में हमेशा से मैं कमजोर रही। इस कारण जीवन में कठिनाइयाँ भोगीं। लेकिन जब लिखने लगी, तब वे बातें लोगों तक स्पष्ट रूप से पहुँचने लगीं।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा के परिंदे की कल्पना आपके मन में कैसे आई और आभासी दुनिया के एक माध्यम से लघुकथा को कितना लाभ आपके द्वारा पहुँचा?

कान्ता रॉय : लघुकथा के परिंदे मंच की कल्पना मेरे मन में हठात नहीं आई थी। यह एक घटना थी जो सहसा घट चुकी थी। पूर्व नियोजित कुछ भी नहीं था। परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि लघुकथा के परिंदे मंच का गठन हो गया। इससे लघुकथा को वास्तव में बहुत लाभ हुआ। लघुकथा के परिंदे मंच ने लेखकों के साथ पाठकों को भी तैयार किया। 

लघुकथा का प्रारूप क्या है, लघुकथा का कलेवर क्या है, यह समझ पाठकों के अंदर विकसित की लघुकथा के परिंदे मंच पर हमने रचनाओं पर शुरू के दिनों से ही समीक्षाएँ, चर्चाएँ कीं क्योंकि उस वक्त तक लघुकथा के प्रारूप को लेकर इतनी अस्पष्टता थी कि मंच पर यह अस्पष्टता हमारे लिए एक चुनौती बन गई थी। नए तो नए पुराने लेखकों में भी लघुकथा के प्रारूप पर भ्रांतियाँ बनी हुई थीं। लघुकथा को लोग लघु कहानी के रूप में लिख रहे थे। 300 शब्द या उससे छोटी, सिर्फ आकार- प्रकार में छोटी होने से ही वह लघुकथा कही जाती थी। लघुकथा की विशेषता क्या है? लघुकथा छोटी कहानी से अलग कैसे है? इस बात को लेकर हमने लघुकथा के परिंदे मंच पर चर्चा की। हमने प्रश्नोत्तरी के लिए महीने के अंतिम दिन अतिथि के रूप में वरिष्ठ लघुकथाकार आमंत्रित किये जिसमें अशोक भाटिया, (करनाल, हरियाणा), बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, मधुदीप गुप्ता, (नई दिल्ली), सतीशचन्द्र पुष्करणा, (पटना, बिहार) से शामिल हुए। इस आयोजन में शामिल प्रश्न महत्त्वपूर्ण थे। 

इस आयोजन के तुरंत बाद अशोक भाटिया ने परिंदे पूछते हैं और बलराम अग्रवाल ने परिंदों के दरमियाँ पुस्तक सम्पादित की जिसे साहित्य सरोकार में सराहना मिली। लघुकथा में यह अपनी तरह का एक नवाचार था जो नए लेखक और वरिष्ठ साहित्यकारों के बीच संवाद सेतु बना। यहाँ मंच पर सदस्यों की संख्या अधिक है। आज विश्व भर से सदस्य के रूप में लगभग 63,908 की संख्या से अधिक पाठक, लेखक, प्रकाशक के रूप में जुड़े हुए हैं। यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है| चलें नीड़ की ओर, समय की दस्तक, रजत श्रृंखला, बालमन की लघुकथा, दस्तावेज (2017-2018), मानवता की लड़ाई इत्यादि लघुकथा - संकलन लघुकथा के परिंदे मंच से निकलकर आई अच्छी लघुकथाओं के संकलन हैं जो पुस्तक के रूप में आ चुका है। यहाँ से लघुकथा का प्रचार-प्रसार खूब हुआ। लोगों तक बात पहुँची। लेखक, पाठक और संपादक विधा के प्रति जागरूक हुए एवं संगठित होकर काम करने के लिए आगे आये। लघुकथा के मापदंड, कलेवर से अब पूरी तरह से लोग परिचित हैं और आप तो जानते हैं कि अच्छे परिणाम देने वाले नए विचारों का भी संक्रमण होता है। एक व्यक्ति की सोच जब वैचारिक दृष्टि से दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुँचती है तो फिर वह अपने आगे उसे प्रवाहित करता है और यह प्रवाहित करने की जो एक श्रृंखला शुरू हुई और इससे लघुकथा को ही नहीं, साहित्य के सभी क्षेत्रों में, सभी वातावरण में सोशल मीडिया द्वारा पहुँचा दिया गया। लघुकथा के परिंदे मंच से लघुकथा के मापदंड, कलेवर और प्रयोजन स्पष्ट तौर पर निकल के आए और पूरी दुनिया में फैल गए। अब लघुकथा को लेकर कोई भ्रांति नहीं है, लघुकथा के लिए मंच की यह एक बड़ी उपलब्धि है।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा शोध केंद्र के माध्यम से एक केंद्रीकृत संस्थान लघुकथा के विकास में लग गया है। इस विचारधारा को आपने कैसे क्रियान्वित किया और इतनी बड़ी टीम को कैसे खड़ा किया?

कान्ता रॉय : टीम तो सोशल मिडिया ने ही तैयार की। भोपाल के करीब 30 से अधिक रचनाकार इस मंच से जुड़े हुए थे। पहला लघुकथा संग्रह घाट पर ठहराव कहाँ के लोकार्पण के लिए सन 2015 में कोट कपूरा, पंजाब में अंतरराज्यीय मिनी कहानी सम्मेलन में भाग लेने गयी और इसके बाद पंजाब, हरियाणा, पटना (बिहार) में आयोजित लघुकथा सम्मेलनों में जाने का मौका मिला, उन जगहों के मुकाबले भोपाल में लघुकथा पर सन्नाटा पसरा हुआ था हमने भोपाल में लघुकथा पर कार्य करने हेतु योजना बनाई, समय-समय पर वरिष्ठ साहित्यकारों से सहयोग माँगा। हमारे वरिष्ठजनों ने उदारमन से सहयोग किया और प्रोत्साहित किया। मंचों पर धीरे-धीरे लघुकथा जगह बनाने लगी। संस्था का गठन जब हो रहा था तब लघुकथा शोध केंद्र समिति, भोपाल की परिकल्पना करते ही सभी साथी उत्साह से भर उठे थे। वर्तमान में सभी साथी मन प्राण से लघुकथा के हित में लघुकथा शोध केंद्र समिति को अपना समर्पण दे रहे हैं।


डॉ. विकास दवे : लेखन, संपादन, संयोजन, प्रकाशन संस्थान, अखबार का संपादन और भी बहुत सारे क्षेत्र आपके साहित्यिक जीवन में बने हुए हैं। आपका बहुआयामी व्यक्तित्व इन सारे क्षेत्रों में बहुत ही सफलता के साथ काम कर रहा है। इस जादू का क्या राज है?

कान्ता रॉय : सच कहूँ तो इस सन्दर्भ में तो मुझे भी नहीं मालूम कि कैसे यह सब हो रहा है। जब जो कार्य सामने आता जाता है, उपलब्ध साधनों की सहायता से करती जाती हूँ। पूर्व नियोजित अथवा निर्धारित कुछ भी नहीं रहता है। एक चिंता हमेशा बनी रहती है कि लघुकथा शोध केंद्र को अपने पैरों पर खड़ा करना है और इसके लिए अख़बार और प्रकाशन संस्थान ही एक मात्र विकल्प दिखाई दे रहा है। अखबार और प्रकाशन संस्थान, दोनों का विस्तार काम की गुणवत्ता से ही संभव है। इसके लिए खुद को अपग्रेड करती रहती हूँ। जन्म जिसे दिया है उसे पालने की जिम्मेदारी तो उठानी होगी ताकि भविष्य में संस्थान स्वपोषित बने, किसी व्यक्ति विशेष पर यह निर्भर न रहे। 

जादू जैसा तो कुछ भी नहीं है। ऐसा समझ लीजिये कि इस सामाजिक अनुष्ठान में समाज अपनी-अपनी भागीदारी बढ़-चढ़ कर निभा रहा है, इस कारण यह सफल होता प्रतीत होता है।


डॉ. विकास दवे : आप आभासी दुनिया से बहुत नजदीकी रूप से जुड़ी हुई हैं। आपके विचार में लघुकथा के विकास में इनका क्या योगदान है? क्या इस माध्यम से. लघुकथा की गुणवत्ता प्रभावित होती है?

कान्ता रॉय : अंतरजाल ने पूरे विश्व में हिन्दी साहित्य को संगठित कर दिया है। लघुकथा को ही नहीं बल्कि कहानी, गीत, गजुल सहित विमर्श को भी विस्तार दिया है। जहाँ हम अपने शहर में एक हॉल में पचास श्रोता जुटाने में पसीने-पसीने हो जाते हैं वहीं अंतरजाल पर पढ़ने और सुनने वाले हजारों पाठक / श्रोता एक क्लिक पर जुड़ जाते हैं। साहित्य जिस समाज के लिए लिखा जा रहा है, अंतरजाल के माध्यम से अब उन तक पहुँच भी रहा है। पहले की लिखी गयी लघुकथाओं के मुकाबले आज लघुकथा की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। यहाँ आकलन नए रचनाकारों के लिखे हुए को देख कर करना गलत हो जाएगा। कारण जो आज नया है वही कल पुरानों की गिनती में आयेंगे। लिखेंगे तभी न सीखेंगे।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा आज एक विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है, लेकिन इस स्थापना के पीछे उसकी एक लंबी संघर्ष यात्रा है। उस संघर्ष यात्रा पर आप क्या कहना चाहेंगी? किस तरह का और किन लोगों का योगदान उस संघर्ष यात्रा में रहा है।

कान्ता रॉय : खुशी की बात है कि लघुकथा वर्तमान में लोकप्रिय विधा के रूप में पहचानी जाती है। लघुकथा के स्थापना के पीछे पचास वर्ष का लम्बा संघर्ष है। उन कमजोर पलों में जब लघुकथा के अस्तित्व को गढ़ा जा रहा था, जब वह स्वीकार्य होने की चुनौती से जूझ रही थी, उस वक्त सत्तर के दशक में जब लघुकथा के लिए रमेश बत्रा, जगदीश कश्यप ने कमान थामी थी, धर्मयुग जैसी बड़ी पत्रिकाओं के साथ सारिका, तारिका (शुभ तारिका), आघात, मिनी युग, जनगाथा, क्षितिज, अभिव्यक्ति, दृष्टि, संरचना सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने साथ दिया था जिसके फलस्वरूप नए-पुराने लेखकों में लघुकथा के प्रति रुझान बढ़ा, वे प्रणम्य हैं। वे सभी कारक एवं कारण स्तुत्य हैं जिन्होंने चित्रा मुद्दल, भगीरथ, अशोक भाटिया, बलराम, सिमर सदोष, पूरन मुग्दल, कृष्णा अग्निहोत्री, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु', कृष्ण कमलेश, सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, विक्रम सोनी, पारस दासोत, मालती बसंत, सतीशराज पुष्करणा, कमलेश भारतीय, मिथिलेश कुमारी, कुमार नरेंद्र, सतीश राठी, अशोक जैन, कमल चोपड़ा, रामकुमार घोटड, मधुदीप, श्यामसुंदर अग्रवाल, श्यामसुंदर दीप्ति, मोहम्मद अतहर और कुँवर प्रेमिल, संजीव वर्मा 'सलिल' जैसे अनगिनत समर्पित लघुकथाकार दिए। इन सभी ने लघुकथा के लिए इतिहास में गोते लगाये और भविष्य को देने के लिए प्राचीन साहित्य में से लघुकथा के असंख्य मोती तलाशे वर्तमान को समृद्ध किया तथा भविष्य के लिए ठोस जमीन तैयार की।


डॉ. विकास दवे : क्या लघुकथा में किसी प्रकार की खेमे बाजी है और यदि है तो उसका इस विधा के विकास पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?

कान्ता रॉय : यहाँ खेमेबाजी सिर्फ लघुकथा में ही क्यों, मुझे तो समाज के हर क्षेत्र में वह चाहे गाँव हो या शहर, दिखाई देती है। धर्म कर्म के क्षेत्र में, राजनैतिक परिवेश में, सरकारी महकमों में, हर जगह ऐसे लोग दिखाई देते हैं। इन बातों को अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। एक जैसे स्वभाव वाले व्यक्ति जब किसी खास उद्देश्य से अच्छे कार्यों के लिए संगठित होकर काम करते हैं तो ये खेमेबाजियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। लघुकथा में सकारात्मक परिणाम देख कर मुझे लगता है कि इससे विकास को कोई फर्क नहीं पड़ता है।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा के आकार को लेकर उसके शिल्प को लेकर उसकी भाषा की कसावट को लेकर उसकी शैली को लेकर आप कुछ कहना चाहेंगी?

कान्ता रॉय : सामाजिक हित के अभिप्राय से परिस्थितियों पर चिंतन-मनन के पश्चात मौलिक दृष्टि निष्पादित करना लघुकथा है। मौलिक दृष्टि नये प्रयोग से ही संभव है। आकारगत लघुता इसकी पहली शर्त है लेकिन निश्चित रूप से इसे शब्द संख्या में बाँधना उचित नहीं होगा। कारण कि रचना अपना आकार-प्रकार स्वयं ही तय करती है। लघुकथा में दार्शनिक दृष्टिकोण होने से उसकी उपादेयता बढ़ती है। शिल्प और शैली किसी विशेष खाँचे में बँधकर नहीं रहती। साहित्य कला का क्षेत्र है और कला सदा विकासोन्मुख हुआ करती है। इसमें छूट मिलना ही चाहिए। जहाँ तक बात है विधा-सम्मत मापदंड की तो लघुकथा का प्रारूप अगर कैप्सूल का है तो उसे होमियोपैथी की गोलियों का आकार नहीं दिया जा सकता है। यह जरूरी है कि भाषा में लालित्य और रस हो जिससे पाठकों में रुचि बनी पहला शतक नश्चत रूप से इस शब्द संख्या बचत नहीं होगा कारण रचना अपना आकार-प्रकार स्वयं ही तय करती है। लघुकथा में दार्शनिक दृष्टिकोण होने से उसकी उपादेयता बढ़ती है। शिल्प और शैली किसी विशेष खाँचे में बँधकर नहीं रहती। साहित्य कला का क्षेत्र है और कला सदा विकासोन्मुख हुआ करती है। इसमें छूट मिलना ही चाहिए। जहाँ तक बात है विधा सम्मत मापदंड की तो लघुकथा का प्रारूप अगर कैप्सूल का है तो उसे होमियोपैथी की गोलियों का आकार नहीं दिया जा सकता है। यह जरूरी है कि भाषा में लालित्य और रस हो जिससे पाठकों में रुचि बनी रहे, पढ़ते हुए उनके मन में तीव्र भावनाएँ, मानवीय संवेदनाएँ जागृत हों।


डॉ. विकास दवे : आप एक प्रदेश की राजधानी में रहती हैं। वहाँ रहने के अपने फायदे और नुकसान होते हैं। लघुकथा के विकास में इस शहर का क्या योगदान रहा है और आप इसमें किस तरह से सहभागी बनी हैं?

कान्ता रॉय : जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। अपने देश से प्रेम करने वाला चाहे गाँव में हो या शहर में, वह अपनी माटी से प्रेम करेगा। जब मैं निमाड़ क्षेत्र में गयी तो मुझे निमाड़ की माटी में बसने वालों पर रश्क हुआ। इसी तरह संस्कारधानी और मालवा की मिठास छू गयी। भोपाल के मुकाबले विचारों और संस्कारों से वहाँ के लोग अधिक संपन्न लगे। बत्तीस वर्ष से भोपाल में हूँ, इस शहर का ऋण है मुझ पर। बड़ा दिलदार शहर है भोपाल भी यहाँ के साहित्यकार विशाल हृदय के स्वामी, उदारमना हैं। लघुकथा के लिए सभी साहित्यकारों ने सच्चे दिल से रचनात्मक योगदान दिया। वर्तमान में लगभग सभी मंचों से लघुकथा का आवाहन हो रहा है।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा को लेकर इन दिनों बहुत सारे सम्मान, पुरस्कार और घोषणाएँ होती हैं। क्या यह लघुकथा के विकास में योगदान करने वाला होता है? क्या इनमें पुराने और नए के बीच का सामंजस्य बनता है?

कान्ता रॉय : सम्मान और पुरस्कार की गरिमा मंच की गंभीरता से आँकी जाती है। मंच के पदाधिकारी अगर वैचारिक रूप से समृद्ध हैं, तो चयन समिति भी अच्छी होगी। विवेकपूर्ण, तर्कसंगत, तुलनात्मक तरीके से परख कर जहाँ सम्मानार्थियों का चयन होगा तो पुरस्कार को गरिमा अवश्य बनी रहेगी। मेरा निजी मत है कि सम्मान के साथ राशि का प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिए। इससे साहित्य में सम्मान की रक्षा करने में मदद मिलेगी।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा का देशज परिदृश्य और वैश्विक परिदृश्य किस प्रकार से एक-दूसरे से अलग है?

कान्ता रॉय : अंतर्जाल ने अब यह अंतर पाट दिया है। जितने चाव से भारत में लघुकथा लिखी-पढ़ी जा रही है। उतने ही चाव से वैश्विक स्तर पर भी लघुकथा में रुझान देखा जा रहा है। अगर गणित लगाने बैठते हैं तो पाते हैं कि अकेले लघुकथा के परिंदे मंच पर हजारों की संख्या में प्रवासी भारतीय लेखक पाठक के रूप में उपस्थित होकर रचनात्मक योगदान दे रहे हैं। राज हीरामन, अनिल जनविजय, रामदेव धुरंधर, सुधा ओम धींगरा, वंदना मुकेश, अंशु जौहरी, शशि पाधा, अनीता कपूर, पूनम डोगरा, चित्रा राणा राघव, उषा भदौरिया सहित अनेक भारतीय विश्व में हिन्दी लघुकथा का परचम फहरा रहे हैं।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा की नई पीढ़ी लेखन के साथ-साथ कितना अध्ययन कर रही है? इन दिनों निरंतर पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। क्या इतना सब पढ़ा जा रहा है? यदि नहीं पढ़ा जा रहा हैं तो क्या इन प्रकाशन का कोई औचित्य है?

कान्ता रॉय : इस सवाल पर हर बार नई पीढ़ी को ही क्यों घेरा जाता है? ये प्रश्न तो नई और पुरानी पीढ़ी, दोनों से होना चाहिए था। नई पीढ़ी की अगर पढ़ने में रुचि नहीं होती तो वह लेखन की तरफ रुख कभी नहीं करती। इतना जरूर है कि मोबाइल, कम्प्यूटर ने हाथ से किताब छीन ली है. लेकिन पुस्तकों में रुचि रखने वाले लोग खूब पढ़ रहे हैं। लेखन की ओर रुझान बढ़ा है तो उनका प्रकाशन तो होगा ही। हमने आजकल प्रकाशन का औचित्य पुस्तक की बिक्री के आँकड़ों से जोड़ लिया है। इस आँकड़े में प्रकाशकों ने ही लेखकों को उलझाया है जो गलत है। इससे जो विकृति साहित्य में देखने को मिल रही है, वह है लेखकों के चिंतन में सामाजिक सरोकार की जगह बाजार की जगह बनना। लेखक लिखने से पहले समाज का हित बाद में पाठकों की संख्या बढ़ाने की जुगत पहले लगाने लगा है, जो चिंताजनक है।


डॉ. विकास दवे : आपके लघुकथा लेखन की रचना प्रक्रिया क्या है?

कान्ता रॉय : मैं सामान्य क्षणों में कुछ भी नहीं लिख पाती हूँ। जब किसी विशेष परिस्थिति से टकराती हूँ या वे स्थितियाँ मुझसे टकराती हैं तो प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लेखन हो पाता है। रोजमर्रा की दिनचर्या में बहुत बार ऐसा होता है कि चीजें आँखों के सामने घट जाती हैं और हम चाह कर भी उसे रोक नहीं पाते, उस वक्त मन बहुत छटपटा उठता है, ग्लानी का बोध होता है। हम इन वजहों को घटने से क्यों रोक नहीं पा रहे हैं, आखिर ऐसी स्थिति पैदा ही क्यों होती हैं, ऐसे सवालों से जब जब घिरती हूँ, लिखने पर विवश हो जाती हूँ, कारण मानवीय मूल्यों के विघटन से जुड़े मेरे इन सवालों के जवाब के लिए मुझे ही जिम्मेदारी निभानी होगी।


डॉ. विकास दवे : लघुकथा के भविष्य के बारे में आपका क्या विचार है?

कान्ता रॉय : कथा साहित्य में उपन्यास और कहानी के समकक्ष लघुकथा ने अब अपनी जगह बना ली है। लेखकों की ही नहीं बल्कि संपादकों की भी यह पसंद की विधा बन गयी है। लघुकथा के उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखकों को सदैव सावधान रहना होगा ताकि यह जगह भविष्य में भी बनी रह सके। मंजिल पाना आसान होता है लेकिन उसे सँभालना और उस पर टिके रहना सबसे बड़ी चुनौती है।

संदर्भ : साक्षात्कार (लघुकथा विशेषांक), अंक - संयुक्तांक : अप्रैल, मई, जून, 2022, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश का प्रकाशन, संपादक : डॉ. विकास दवे (निदेशक, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद)

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डॉ. विकास दवे

निदेशक, साहित्य अकादमी, 

मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद्, 

संस्कृति भवन, बाणगंगा,

भोपाल (म.प्र.)-462003

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कान्ता रॉय

निदेशक, लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल

सम्पर्क : 54\A, सेक्टर - C, 

बंजारी, कोलार रोड, भोपाल (म.प्र.)- 462042

मो. 9575465147, 

EMAIL : roy.kanta69@gmail.com

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