लघुकथाः संवेदना, संभावना और सरोकार - कमल चोपड़ा
लघुकथा वृत (भोपाल, फरवरी अंक,2019)
निरंतर विकास लघुकथा ही नहीं किसी भी विधा की जीवंतता और सामर्थ्य का परिचायक है। लघुकथा के स्वरूप के परिवर्तन, नवीन प्रवृतियों और उपलब्धियों पर गौर किया जाना आज और भी आवश्यक हो गया है।
सवाल है कि समकालीन लघुकथा की रचनात्मकता की गुणवत्ता में कितना अंतर आया और उसकी जीवंतता कितनी बढ़ी? किसी भी कालखंड या पीढ़ी का लेखन इस बात से जाना जा सकता है कि वह अपने समय की जटिलताओं, समस्याओं और परिवर्तनों को कितना पकड़ पाया तथा नये मुहावरों को कितना गढ़ पाया?
अब सीमित और संक्षिप्त आकार ही लघुकथा के लिये एकमात्र, पर्याप्त और अंतिम आवश्यकता नहीं है। विसंगति और विडंबना की कोई चुटकी या वक्रोक्ति या दो-एक काव्य-पंक्तियों का दौर या समय जा चुका है। अब समय और समाज से सीधे-सीधे टकराव और उसका प्रतिफलन उतना आसान भी नहीं है। तमाम प्रतीकों, बिम्बों, तथ्यों, ब्यौरों, भारी शब्दों और कलात्मकता के बावजूद रचना प्राणहीन हो सकती है।
लघुकथा के समकालीन परिदृश्य के ऐसी अनेक लघुकथाएं हैं जिनमें अनुभूतियों और यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिये प्रचलित रूपों में परिवर्तन, प्रयास और प्रयोग किये गये हैं। आवश्यकता लघुकथा की उपलब्धियों का आगे अध्ययन करने की है।
लघुकथा के उस दौर में जब पैरोडीनुमा चुटकियों के आधिक्य ने व्यंग्य की अनिवार्यता, 'लघुकथा बनाम लघुकहानी' और लघु व्यंग्य आदि विवादों को जन्म दिया परन्तु गंभीर रचनाकारों द्वारा डट और कस कर किये गये विरोध के सामने वे नहीं टिक पाये। कहा जा सकता है कि गंभीर और सार्थक लघुकथा के सृजन का दौर यहीं से प्रारंभ हुआ और लघुकथा कथ्य, शिल्प भाषा और विचार के स्तर पर निरंतर विकास की ओर अग्रसर होने लगी।
इसके बाद भी शब्द सीमा, काल निर्धारण और पात्रगत विशेषाग्रहों को लेकर कुछ प्रश्न उठाये गये जो कि कुछ तो लघुकथा की आकारगत लघुता के कारण उठने स्वाभाविक थे और कुछ को अपरिपक्व लोगों ने जानबूझ कर भी उछाला। लेकिन सजग रचनाकारों ने इसे विवाद का रूप ना देकर स्वस्थ बहस के रूप में लिया, और क्योंकि किसी भी सृजनात्मक कला-रूप को किसी सीमा निर्धारण या किसी विशेष आग्रह में नहीं बांधा जा सकता इसलिये सृजनात्मक चिंतनधारा से युक्त रचनाकारों के लिये सभी संकुचित मुद्दे बेमानी सिद्ध हुए लेकिन इस बहस ने लघुकथा के विकास को कुछ और गति प्रदान की।
निश्चित रूप से दौर में लिखी गई प्रत्येक रचना कालजयी नहीं होती। लिखी गई अधिकांश रचनाओं में से कुछ ही रचनायें अपनी सार्थकता सिद्ध करके कालजयी हो पाती हैं। ऐसी सार्थक रचनायें ही विधा को समृद्ध करती हैं, उसे विकास की नई ऊँचाईयाँ प्रदान करती हैं।
इधर उपलब्ध लघुकथा के आलोचनात्मक पक्ष से गुजरते हुए लगता है कि इसमें व्यक्तिगत भेदभाव और गुटबाजी के अतिरिक्त कुछ नहीं है, ऐसा नहीं है। सृजनात्मक के स्तर पर हिन्दी लघुकथा इतनी समृद्ध हो चुकी है कि कथ्य, शिल्प या भाषा किसी भी स्तर पर यह विश्व स्तरीय लघुकथा से न्यून नहीं है।
हर विधा में, हर दौर में लचर और सार्थक दोनों तरह हर विधा में, हर दार में लवर आ की रचनायें छपती हैं। जिस वक्त नेता, कुर्सी, पैरोडी, और लघु व्यंग्य के नाम पर चुटकले परोसे जा रहे थे उस वक्त बेदखल, कहूँ कहानी, किराये की जिन्दगी, रिपोर्ट, योग्य प्रत्याशी, गरीब की मां, जिन्दगी, कागज का आदमी, अपनी बार, फैसला, नागफनी के फूल, ओस, भीड़, रोटी बनाम खून, बदनाम आदि-आदि जैसी अनेक प्रभावशाली लघुकथाएं लिखी जा रही थीं जो कि कथ्य, शिल्प और भाषा के स्तर पर तो उत्कृष्ट थीं ही, आकार में लघु होने के बावजूद वे बहुआयामी थीं और उन में अधूरापन कहीं नहीं था। वे एक सम्पूर्ण विधा की सभी माँगों को पूरा करती थी।
लघुकथा एक सम्पूर्ण कथा प्रकार के रूप में सामने आई तो अगंभीर लेखकों की पूरी एक जमात ने समाज में व्याप्त बुराईयों, पुलिसिया जुल्म और सरकारी अर्द्धसरकारी संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार को बिना किसी लेखकीय विवेक अथवा दृष्टिकोण के ज्यों का त्यों परोसना शुरू कर दिया, जिससे उल्टा दिये गये कूड़ेदानों से निकले नकारात्मक और सवालआदि निराशाजनक कूड़े का ढेर लगना स्वाभाविक था, लेकिन उस सब से अलग सजग, सचेत और स्वस्थ रचनाकार सृजन में जुटे हुए थे। उनकी रचनायें कूड़े के ढेर में दबी नहीं रह सकीं। खोया हुआ आदमी, दस पैसे, संस्कार, सल्तनत कायम है, दहशत, मातृत्व, देश, योजना, दाम्पत्य, इज्जत, रंग, इनाम, राजनीति, खेल, भूख किसे है, हितचिंतक, अ.यात्रा, मृगजल, न्याय के बावजूद .... आदि-आदि उस दौर की रचनायें हैं जो लघुकथा के विकास और समृद्धि में चुपचाप अपना योगदान दे रही थीं।
इस विकास को लघुकथा में आये बदलाव की बजाय अपने स्वरूप को स्पष्ट करना कहना अधिक उपयुक्त होगा। आज की लघुकथा का समसामयिक समस्याओं, चिन्ताओं और प्रश्नों से जूझना इस विधा की विशिष्टता और जीवंतता का परिचायक है। मौजूदा दौर के वे राष्ट्रीय/अन्तराष्ट्रीय मुद्दे जो किसी भी विधा के किसी समर्थ रचनाकार की चिन्ता का विषय हो सकते हैं प्रत्येक गंभीर लघुकथाकार की भी चिन्ता का विषय हो सकते हैं। विपुल मात्रा में ऐसी अनगिनत उपलब्धिपरक लघुकथाएं निरंतर सामने आ रही हैं। आवश्यकता ऐसी उपलब्धिपूर्ण रचनाओं को चर्चा के केन्द्र में लाने की है। भूख, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा, अन्याय, आबादी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से जूझता हुआ देश गुरबत और जहालत के बावजूद विश्व में शक्ति सम्पन्न पूर्णतया विकसित राष्ट्र बनने की राह पर तेजी से चल हालांकि वे पुरानी समस्यायें और अधिक गंभीर, त्रासद और जटिल रूप में आज भी मौजूद हैं। ग्लोबलाइजेशन लिबरेलाईजेशन की चमक और चकाचौंध ने दूसरी कहीं अधिक गंभीर जटिल और अमानवीय स्थितियां उत्पन्न कर दी हैं। रचनाकार की चिंता और सरोकार तेजी रहे इस परिवर्तन से उत्पन्न उन अमानवीय स्थितियों लेकर है। हालांकि परिवर्तनशीलता की पकड़ हमेशा रचनाकारों के लिये चुनौती रही है।
सीलिंग, विस्थापन, प्रदूषण, एड्स, निजीकरणभ्रूण हत्या, विदेशी माल से प्रतियोगिता, जमीनों की अधिग्रहण, विदेशी कंपनियों का जाल, बाजारवाद उपभोक्तावाद, पूंजी का प्रसार, हथियारों की होड़, बढ़ती अश्लीलता, अनैतिकता, किसानों की दुर्दशा, परम्परागत धंधे का समाप्त होना, स्त्री सशक्तीकरण, राजनीति का अपराधिकरण, मीडिया का भ्रमजाल, साइबर क्राईम आदि–आदि पर उपलब्ध लघुकथाओं की संख्या बहुत कम है। कौन से सवाल, विषय या मुद्दे आज लिखी जा रही लघुकथाओं में मुख्य रूप से स्थान पा रहे हैं ?
निश्चित रूप से विषयों की सूची बना लेने से ही रचना या विधा का भला नहीं हो सकता। निश्चित रूप से लघुकथा एक जीवंत विधा है। कहानी आदि अन्य कथा रूपों, प्रकारों की तरह लघुकथा विषय वस्तु, भाषा और शिल्प के और शिल्प के अतिरिक्त एक गहन सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की मांग करती है। अंर्तदृष्टि के अभाव में तमाम बौद्धिक, कलात्मक, कसरतों और काल्पनिक प्रसंगों के बावजूद रचना निर्जीव ही बनी रहती है।
लघुकथा के रचना विधान और शिल्प संबंधी कई आलेख आये हैं। लघुकथा कैसे श्रेष्ठ बनती है या बन सकती है यह नुस्खा या फार्मूला विश्व का कोई भी महानतम आलोचक या श्रेष्ठतम लेखक भी नहीं बना या बता सकता जिससे कि उस सांचे के अनुरूप श्रेष्ठ रचनाएँ बनती चली जायें। सामान्य नियमों पर बात की जा सकती है। संवेदनात्मक, पकड़ की गहनता ही प्रक्रिया को तय करती है। क्योंकि वस्तु प्रत्येक लेखक के लिये अलग-अलग भांति से घटित होती है।
यह अकारण नहीं है कि लघुकथाकार बड़ी-बड़ी घटनाओं को छोड़कर ऐसी नगण्य घटनाओं को चुनता है, सिर्फ आकार ही नहीं वस्तु की संवेदना पर भी गौर करता है।
भाषा के प्रति अतिरिक्त सतर्कता, सजगता लघुकथा के लिये आवश्यक-सी है। रचनाकार से शब्दों की मितव्ययता की उम्मीद की जाती है। लेखक अपनी कथा भाषा स्वयं गढ़ता है जिससे वह अपनी पहचान बनाता है। हालांकि अपवादों को छोड़कर लघुकथा में बहुत कम रचनाकार अपनी भाषा से अपनी पहचान बना सके हैं। छोटे-छोटे वाक्यों में रखे गये शब्द ऐसे हों जिनसे अचूक अर्थ व्यक्त हों, साथ ही कुछ छिपे भाव व अर्थ भी ध्वनित हों। भाषा में शिथिलता और लापरवाही विधा के लिये नुकसानदायक हो सकती है।
अन्य विधाओं की तरह लघुकथा का विकास भी संक्षिप्तता और सांकेतिकता की ओर हुआ है वरना समय, समाज और जीवन के विराट सत्य को एक छोटी सी रचना के रूप में प्रस्तुत करना या व्यक्त करना आसान नहीं है। संकेत, प्रतीक, मिथक, फंतासी आदि लघुकथा को प्रभावशाली बनाने में मदद करते हैं। लघुकथा के लिये अतिरिक्त परिश्रम प्रतिभा और कुशलता की माँग की जाती है मामूली लापरवाही और असावधानी से तमाम बिम्बों, प्रतीकों, तथ्यों, ब्यौरों, कलात्मक और भारी भरकम शब्दों के बावजूद रचना प्राणहीन हो सकती है।
लघुकथा जैसी महत्वपूर्ण और प्रभावशाली विधा का अभी तक साहित्य के केन्द्र में न पहुंच पाना और धुरंधरों का इसे अधिक महत्व न देना लघुकथाकारों के लिये विचारणीय अवश्य है। इसमें बाहय और आंतरिक दोनों स्थितियां जिम्मेदार हो सकती हैं।
आज भी जहां एक ओर बार-बार दोहराई जा रही स्थितियों, प्रसंगों और घटनाओं से गतिरोध सा मौजूद है, कथ्यों की नवीनता का लगभग अभाव-सा है। वहीं दूसरी ओर, लघुकथा की प्रकृति के विरूद्ध उसकी वस्तु और ढांचे में उलजलूल और काल्पनिक प्रयोग, विस्तार की मांग करने वाले कथानकों को भी संक्षेप में लिखकर लघुकथा बनाना, संस्मरण गद्यगीत, बोधकथाओं, रेखाचित्र और लोककथाओं, जैसी अन्य लघुआकारीय विधाओं को भी लघुकथा में शामिल करके भ्रामक स्थिति उत्पन्न करना कुछ लोगों की पौराणिकता के प्रति अधिक दिलचस्पी आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो इसके सहज विकास में बाधक हैं।
नवीन और मौलिक कथ्यों, विषयों, विचारों और प्रसंगों को नवीन भाषा-शिल्प और प्रचुर कल्पनाशीलता के साथ कलात्मक यथार्थ में बदलकर प्रस्तुत करना ज्यादा प्रभावपूर्ण हो सकता हैपौराणिकता की बजाय नवीनता पर जोर दिया जाये तो रचनाकार और विधा दोनों के लिये अच्छा हो सकता है। विश्व में सभी भाषाओं में हिन्दी लघुकथा की जैसी छोटी कहानियां लिखी गई हैं, लेकिन उन्हें शार्ट स्टोरी या कहानी के अंर्तगत ही रखा गया है। शायद सिर्फ हिन्दी में ही लघुकथा ने स्वतंत्र विधा के रूप में अपनी पहचान बनाई है। विश्व साहित्य में छोटे-छोटे वाक्यों, या कुछ सीमित शब्दों के रूप में अनेकों शीर्षकों से जो रचनाद्ध प्रकार सामने आ रहे हैं, उन्हें लघुकथा नहीं कहा जा सकता। लघुकथा लेखकों को उनसे भ्रमित या आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
निर्वाचित लघुकथायें : सं0 अशोक भाटिया, बीसवीं सदी की लघुकथाएं; सं0 सुकेश साहनी, 'हथेली पर पहाड़', 'पाप और प्रायश्चित', 'कारीगर के हाथ', पहाड़ पर कटहल' चार खण्डः संपादक बलराम.... आदि आदि में संकलित लघुकथाओं को उपलब्धि के तौर पर रखा जा सकता है। ऐसे कई अन्य संग्रह और अनेक लघुकथायें हैं जिन्हें इस लेख की सीमा के कारण यहाँ उल्लेख करना कठिन है।
नये रचनाकारों की गहन सूक्ष्म, वैज्ञानिक दृष्टि ने लघुकथा के सर्वथा नये क्षेत्रों और क्षितिजों को प्रस्तुत किया है। नये कथ्यों, तेवरों, अंदाजों, प्रयोगों, दृष्टिकोणों, तर्को और विचारों को कलात्मकता और प्रचुर कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। अतः निराश होने का कोई अर्थ नहीं है। आवश्यकता उपलब्धियों का आगे अध्ययन करने की है।
कुल मिलाकर यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा कथ्य, शिल्प, भाषा और विचार सभी स्तरों पर समृद्ध हुई है और निरंतर हो भी रही है।