दस्तावेज –मुज़फ्फर इकबाल सिद्दीकी


समीक्षकों की प्रतिक्रियाओं का विवरण है दस्तावेज –मुज़फ्फर इकबाल सिद्दीकी


  दस्तावेज, वास्तव में लघुकथाओं का एक ऐसा गुलदस्ता है जिसमें पूरे साल में प्रत्येक माह लघुकथा गोष्ठियों में विभिन्न रचनाकारों द्वारा पढ़ी गई रचनाएं और उन पर सुधीजनों, समीक्षकों की प्रतिक्रियाओं का विवरण है । जब यह संकलन आपके हाथ में होगा तब इसकी भीनी-भीनी सी खुशबू का आपको एहसास होगा। यह न केवल रंग बिरंगे फूलों का गुलदस्ता है जो आपकी आंखों को एक ताज़गी देगा। बल्कि आप इसके एहसास से अछूते नहीं रह पाएंगे ।


एक बहुत मुश्किल कार्य था। उन सारी रचनाओं का विभिन्न माध्यमों से संकलन करना। कभी ये रचनाएं सादे कागज पर लिखी प्राप्त हुईं तो कभी मेल पर विभिन्न लिपियों (फॉण्ड्स) में। जिन्हें संकलन कर्ता को कभी - कभी तो स्वयं टाइपिस्ट बनना पड़ा। कुछ हमारे वरिष्ठ और कनिष्ठ लेखक ऐसे भी हैं जो बजाय टाइप करके मेल पर भेजने के हाथ से लिखकर देने में ज़्यादा सहज महसूस करते हैं। फिर चूंकि गोष्ठी का एक नियम ये भी है कि जो भी रचना पढ़ी जाय उसका संकलन भी हो ताकि वह एक दस्तावेज का रूप ले सके। एक दुरूह कार्य जो आखिरकार सम्पन्न हो ही गया। अब आपके सामने है ।


वास्तव में इस कार्य को करने में बहुत आनंद आया । सभी 56 लेखकों की रचनाओं के माध्यम से उन्हें अन्दर से जानने समझने का मौका मिला। हक़ीक़त तो ये है कि बाहर चलते-फिरते इस हाड़-मांस के पुतले के अन्दर भी प्यारा सा एक इंसान रहता है। उसकी भी कुछ अपनी अभिलाषाएं हैं। एक तरफ तो वह समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करता है तो दूसरी तरफ समाज से उसकी कुछ अपेक्षाएं भी हैं । या यूं कहें कि उसके अन्दर दबी - दुची तमाम आरज़ूएँ तमन्नाएं हैं । वह तब ही जागतीं हैं जब ये एकान्त में बैठकर कलम उठाता है।


लघुकथा के माध्यम से समाज में बिखरी हुई अनेक विसंगतियों में से समाज को दिशा देने वाला संदेश भी प्रस्तुत करता है। कभी उनमें से हास्य व्यंग्य के खजाने ढूंढता है तो कभी खुशियां तलाश करता है। कभी दुख दर्द और आंसुओं के मोती लघुकथा के धागे में पिरोकर खुद ही पहन कर आईने के सामने खड़ा हो जाता है ।और खुद को तलाश करता है। वाक़ई खुद को ढूंढना और सबको अपनी पहचान कराना भी तो मुश्किल काम है। बहरूपिया बनना तो आसान है। लेकिन अपने उसूलों की कठोर चट्टान पर बैठना बड़ा मुश्किल है क्योंकि वहाँ मज़बूती से पकड़ कर रखने के लिए कुछ भी नहीं। आदर्श स्कूलों के सहारे खड़े होने में ज़िन्दगी की हवाओं के थपेड़े उसे परेशान करते हैं। किसी लघुकथा को समझने का मतलब उस दृष्टिकोण को समझना होता है जिसे लेखक ने अपने एंगल से देखा हो।


जब एक लघुकथा अपना स्वरूप लेकर गोष्ठी में आती है तो पाठक, श्रोता और समीक्षक दरअसल उसका श्रृंगार करते हैं । कोई हाथों में मेंहदी लगाता है तो कोई उसके चेहरे का मेक अप करता है, कोई उसे बिंदी लगता है तो कोई चूड़ी पहनाता है। और जब ये दुल्हन इस संगोष्ठी रूपी ब्यूटी पार्लर में सज धज कर तैयार हो जाती है तो हमारे मुख्य अतिथि और मुख्य समीक्षाक उसे ज़िन्दगी के उसूल समझाते हैं । उसको आदर्श जीवन व्यतीत करने के गुर सिखाते हैं । फिर यही लघुकथा के पात्र विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं , किताबों में छपकर रोल मॉडल बन जाते हैं। जो कालजयी होते हैं। आ मालती बसंत जी की अनेक रचनाएं जो पचास साल पुरानी हैं। लेकिन जब आप सुनातीं हैं तो ऐसा लगता है जैसे आज के परिवेश को प्रदर्शित कर रही हों । आ कांता रॉय जी की अनेक लघुकथाएं ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़त बयान करतीं हैं । आ महिमा वर्मा जी, घनश्याम मैथिल जी और भी ऐसे लघुकथाकार ऐसे हैं । जिनकी रचनाएं विभिन्न मंचों से पुरुस्कृत हो चुकीं हैं ।


अन्त में हमारे उन सब साथी संपादक मंडल , और लघुकथा शोधकेन्द्र की ओर से आदरणीय कांता रॉय जी का आभार व्यक्त करता हूँ । क्योंकि उन्हीं की परिकल्पना और प्रेरणा स्वरूप आज ये अंक आपके सामने प्रस्तुत है । साथ ही आ मधुलिका सक्सेना जी ने मुझे इस कार्य में न केवल सक्रिय सहयोग दिया बल्कि उनकी बेशकीमती सलाह भी हमेशा साथ रही ।


आप सभी पाठकों की शुभेच्छा का प्रार्थी ।


मुज़फ़्फ़र इक़बाल सिद्दीकी


178, नवीन नगर


ऐशबाग


भोपाल - 462010


मोबाइल नो – 9977589093


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