अग्नि की मशाल थामे हुए समीक्षक-- शशि बंसल

 


अग्नि की मशाल थामे हुए समीक्षक-- शशि बंसल



लघुकथा शोध केंद्र की जब भोपाल में नींव रखी गई।  इसके पूर्व विधा विशेष को लेकर कोई भी साहित्यिक केंद्र गठित हो सकता है, शायद अकल्पनीय ही था, परंतु उसे साकार रूप दिया कांता राय ने। उनके साथ कई सहयोगी हाथ जुड़े, लेकिन लघुकथा शोध केंद्र की स्थापना को लेकर स्थापना के बीज रूपी विचार को ज़मीन उनके मस्तिष्क में ही मिली तो निसंदेह भावी वृक्ष पर प्रथम तख़्ती उनके नाम की ही टाँगी जाएगी। खाद- पानी दे रहे शेष हाथों की अपनी अलग महत्वपूर्ण भूमिका है।  कांता राय का जुनून,जज़्बा, समर्पण यही नहीं रुका बल्कि दो कदम आगे बढ़ते हुए प्रिंट मीडिया तक जा पहुँचा और केंद्र के साथ ही विधा-सम्मत समाचार पत्र का दायित्व भी उन्होंने अपने कंधों पर ले लिया ।  साहित्यक गोष्ठियों में मिलते हुए वह अक्सर लघुकथा विधा पर अपनी भविष्य की योजना और रूपरेखा पर विचार साझा किया करती थीं, तब जरा भी अनुमान नहीं था कि वे इतनी शीघ्रता से इसे क्रियांवित कर पाएँगी।  निश्चित रुप से उनके दोनों कदम ने लघुकथा जगत में हलचल-सी पैदा कर दी। जिसने विधा विशेष में अर्ध शतक भी पूर्ण न किया हो उसका इतनी तीव्रता से लघुकथा जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाना प्रशंसनीय है। यहाँ प्रशंसा उनके लेखन की नहीं बल्कि जज़्बा और समर्पण की है|उनकी सक्रियता और परिश्रम की है। कहते हैं गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार न्यूटन ने किया था तो क्या उसके पहले गुरुत्वाकर्षण अपना काम नहीं कर रहा था,कर रहा था ...  चूँकि सबसे पहले न्यूटन के मस्तिष्क में यह विचार उपजा कि  सेव पेड़ से नीचे क्यों गिरा, ऊपर क्यों नहीं गया? तो बस वे इसकी खोज़बीन में लग गए और इसका श्रेय उनके नाम को गया। चूँकि भारतीय लघुकथा की ज़मीन पर लघुकथा का बीजारोपण भारतेंदु युग से ही हो चुका था तो इतने वर्षों के लघुकथाकारों के अथक परिश्रम से लघुकथा एक अलग स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। अनेक सिद्धस्तों ने लघुकथा की रूपरेखा, मानक,  संदर्भ, शोध आदि को पहले से ही शोधार्थियों और नवलघुकथाकारों के लिए सशक्त जमीन तैयार कर रखी है। एक जरा कमी थी तो बस यही कि कोई ऐसा स्थान हो, केंद्र हो,विचार हों, जहाँ यह सब एक ही जगह पूंज रूप में मिल सके, इन्हें पढ़ने,सुनने,गुनने  व सीखने - समझने,अपनी जिज्ञासा को शांत करने, कमियों को त्वरित जानकर सुधारने के लिए बहुत अधिक इधर-उधर ना भटकना पड़े।  ऐसी जगह जहाँ बात हो, विमर्श व चिंतन हो तो सिर्फ एक ही लक्ष्य यानी लघुकथा पर।  बस इसी भाव को अंगीकार कर कांता राय ने अपने मनोबल से भोपाल में लघुकथा शोधकेंद्र स्थापित करने का संकल्प लिया जो कि आज भोपाल से बाहर दूसरे शहर और राज्यों में भी कोपल रूप में फुट चुका है।


लघुकथा शोधकेन्द्र का सौभाग्य रहा कि यहाँ आने वाले अतिथि एक से बढ़कर एक साहित्य मर्मज्ञ और विधा विशेषज्ञ रहे। प्रत्येक गोष्ठी में लघुकथाकारों को वह सब सुनने - सीखने को मिला जिसके लिए उन्हें पता नहीं कितनी पुस्तकें खगांलनी पड़ती। लघुकथा शोधकेन्द्र की दिशा बिलकुल एकलक्षी और स्पष्ट है, क्योंकि जो भी चर्चा होनी है, वह सिर्फ़ लघुकथा पर ही होगी। यहाँ न कोई वरिष्ठ है न कनिष्ठ। सब विद्यार्थी हैं, सबको समीक्षा की आँच पर बारी-बारी तपना है। बिना ये विचारे कि अग्नि की मशाल थामे समीक्षक उनसे उम्र में, साहित्य में किस मूकाम पर हैं। हो सकता है वह और वरिष्ठ हों, या फिर वह प्रथम पायदान पर कदम ही रखा हो। चूँकि वह पाठक है, श्रोता है, तो उसकी अपनी स्वतंत्र सोच और विचारधारा हो सकती है जो सम्मानीय है। सबको समीक्षा का समान अवसर दिए जाने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि लोग सिर्फ़ पढ़ने के लिए नहीं आते, बल्कि दूसरों को भी ध्यान से सुनते हैं क्योंकि उन्हें उस लघुकथा पर अपनी प्रतिक्रिया देना है तो उनकी एकाग्रता सुनने-समझने की ओर भी होती है। जिसका लाभ उन्हें स्वयं लघुकथा लिखते समय भी मिलता है और वे सिर्फ़ लिखना या संख्या बढाना है ये सोचकर नहीं लिखते वरन गंभीरता से उस पर काम करते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात एक ही लघुकथा की समीक्षा दो समीक्षकों द्वारा की जाती है जिससे एक साथ दो दृष्टिकोण, दो सोच और किस तरह सोचा जा सकता है ये भी सीखने को मिलता है।


लघुकथा पाठ के साथ ही त्वरित समीक्षा जहाँ लघुकथाकार को पूर्ण तैयारी के सापूर्ण साहस थ गोष्ठी में आने के लिए प्रेरित करती है वहीं तुरंत ही कमियों का पता चलने पर विमर्श के लिए पर्याप्त समय भी देती है। जिससे न केवल लघुकथा अपने असल स्वरूप के करीब पहुँचती है, बल्कि लघुकथाकार का आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। लघुकथाकार पूर्ण साहस के साथ गोष्ठी में उपस्थित होकर बेबाक समीक्षा सुनकर भी मुस्कुरा लेते हैं, हतोत्साहित नहीं होते, क्योंकि वे इसके उद्देश्य को भली भाँति समझते हैं। वे जानते हैं कि लघुकथा शोधकेंद्र में झूठी वाही-वाही के लिए कोई स्थान नहीं। बात चाहे कथानक की हो, विषय चयन की हो, शिल्पगत त्रुटियों की हो, तकनीकि चूक की हो, अक्षर या शब्द उच्चारण की हो, वाचन की हो या भाव प्रवणता की। सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म बिन्दुओं पर समीक्षकों, विद्वानों, अतिथियों द्वारा पूररूपेण गौर किया जाता है और सुधारा ही नहीं जाता है बल्कि भविष्य में पुनरावृत्ति ना हो इस पर भी दिशा निर्देश दिया जाता है ।


फेसबुक से इतर भी श्रेष्ठ लघुकथाकारों की दुनिया है ये जानती थी परंतु मेरे अपने शहर में भी ऐसे श्रेष्ठ लघुकथाकार हैं जो इस विधा के साथ इस विधा के लोगों में अपने नाम को उतना नहीं 'चमका' सके । ये मेरी अल्पग्यता हो सकती है, परंतु महसूस यही किया । लघुकथा शोध केंद्र की उपलब्धि के रूप में जो नाम मुझे महत्वपूर्ण लगे बिना किसी पक्षपात के, वे हैं - गोकुल सोनी, विनोद जैन, सुमन ओबेराय और सतीश श्रीवास्तव । संभव है कुछ और नाम भी हों जो मेरी पकड़ से छूट गए हों। ये नाम वे हैं जिनकी लघुकथाएँ, समीक्षाएँ, उनका बौद्धिक फ़लक प्रत्येक को विस्मित कर देता है । इनका कथानक चयन, सामाजिक विसंगति पर प्रहार, तीक्ष्ण व्यंग्य सीधे हृदय पर आकार चोट करता है।


 लघुकथा शोध केंद्र की यात्रा की यदि बात की जाए तो अभी उसने सिर्फ प्रथम कदम ही उठाया है। मंज़िल बहुत दूर है पर है ये तय है। धीरे-धीरे अन्य विधा के साहित्यकारों का रुझान इस विधा की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है। इस केंद्र की स्थापना दिवस का प्रथम कार्यक्रम बमुश्किल छह बाय सात के कमरे में हुआ। बैठने की जगह नहीं थी। लोग ठसाठस भरे थे। दूसरे कमरे की दहलीज़ और बाहर सीढ़ी के पास के स्थान पर बैठे थे। संसाधन के नाम पर शून्य ... कई गोष्ठियों के बाद साहित्यिक भवन की उपलब्धता हो पाई।  फिर एक दिन वह भी आया जब छोटा ही सही लेकिन एक निश्चित कार्यालय भी बन गया। सम्पादकीय टीम सहित पूरे लघुकथा शोधार्थियों के लिए इससे अधिक हर्ष की बात क्या हो सकती थी, जहाँ सम्पादक मंडल बैठकर चिंतन-विमर्श कर सकता था। एक ही स्थान पर लघुकथा की तमाम पुस्तकें उपलब्ध होने से सीखने की प्रक्रिया भी आसान हो गई। शोधकेन्द्र की सफलता का राज़ इसकी दिशा है जो शुरू से ही केंद्रित थी अपने लक्ष्य की ओर। लघुकथा, लघुकथा और सिर्फ़ लघुकथा ...


ठीक वही स्थिति शोधकेन्द्र से निकाले जा रहे समाचार पत्र 'लघुकथा वृत्त' की है। समाचार पत्र के लिए धन राशी की व्यवस्था की बात हो, किस प्रकार की सामग्री चयनित हो इसकी बात हो, किस तरह के कॉलम रखे जाएँ, किस तरह उन्हें नामांकित किया जाए, कैसे वरिष्ठों और नवागतों के बीच संतुलन बनाते हुए उन्हें समाचार पत्र में स्थान दिया जाए  इस तरह की तमाम परेशानियों से भी दो - चार होना पड़ा । कागज की गुणवत्ता, रंगीन या काला -सफ़ेद, रजिस्ट्रेशन क्रमांक से लेकर हर मोर्चे पर भिड़ना पड़ा, जिसमें कई गलतियाँ भी हुईं - कभी प्रूफ रीडिंग को लेकर, कभी प्रिंटिंग को लेकर और कभी ये भी हुआ कि लघुकथा को विभिन्न खाँचों में बाँटे जाने पर किसी वरिष्ठ को कोई नाम दिया जाना पसंद नहीं आया और वह कॉलम बाद में नहीं छपा। तिस पर भी अलग - अलग प्रतिक्रियाएँ आईं । पर कहते हैं अंत भला तो सब भला तो बस भोपाल के कुछ लघुकथा प्रहरी लगे हैं अपनी जिम्मेदारी निभाने में। सफलता-असफलता, आलोचना-समालोचना को साथ लेकर। बहुत धीमे ही सही कदम गतिमान है तो विश्वास है कि एक दिन मंज़िल तक भी अवश्य पहुंचेंगे ...


शशि बंसल .


 


 


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