भटके मुसाफ़िर के लिये ठहराव है

                           

भटके मुसाफ़िर के लिये ठहराव है - 'समय की दस्तक'

मनीष कुमार पाटीदार 

हिन्दी साहित्य की अनुपम सुंदर चितवन व कोमल पुष्पों की वाटिका में छोटे से बड़े व सीधे तने निर्मल पेड़ - पौधों की डालियों पर बैठे उनमुक्त पंछियों की तरह प्रौढ़ व नवोदित 'लघुकथा के परिन्दे' आज अपनी ओर से साहित्य की सबसे छोटी विधा लघुकथा को जो इतना महत्व दे रहे हैं उनका सर्वप्रथम आभार।

जैसे कि लघुकथा शोध केन्द्र की स्थापना के बाद केन्द्रीय प्रधान कान्ता रॉय ने जिस तरह अपने अथक प्रयासों से बहुत कम समय में पाँच ईकाइयों का गठन कर मध्यप्रदेश को लघुकथा की एक नई सौगात दी वह आज मध्यप्रदेश ही नहीं वरन देश व विदेश में रहने वाले भारतीय साहित्यकारों को मंच पर लाने का बेहतर प्रयास रहा है। इसमें कोई दो मत की बात नहीं कि आने वाले समय में लघुकथा शोध केन्द्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नये कीर्तिमान रचेगा। कान्ता रॉय ने अपने झीलों के सुंदर शहर भोपाल में रहते जिस तरह भागदौड़ कर कॉलोनी, मोहल्ले के लघुकथाकारों से सम्पर्क कर आशा की किरण के साथ दीप प्रज्वलित कर लघुकथा के क्षेत्र में कुछ हटकर अलग करने की शुरुआत की वह शोध केन्द्र से जुड़े हुए व 'लघुकथा के परिंदे' मंच साथियों के लिए एक तरफ प्रेरणास्रोत है तो वहीं नवयुवा लघुकथाकारों को मंच पर लाने का सार्थक प्रयास है। सत्य सनातन काल से संस्कृति को आगे बढ़ाने की परम्परा रही है। प्राचीन साहित्य हो या फिर आधुनिक साहित्य, कहीं न कहीं समय - समय पर नवप्रवर्तन हुआ है। लघुकथा भारतवर्ष स्वतंत्रता के पहले व बाद से लेकर अभी तक मनः मस्तिष्क में गहरी पैठ लिए एक आन्दोलन की तरह सामने आई है। इसके प्रति अपना दायित्व निभाने में आज महिला वर्ग विशेष रुप से आगे आकर अपनी कर्मठता का परिचय दे रही है। जहाँ कान्ता रॉय ने अपने आसपास की महिला साहित्यकारों से सम्पर्क कर शोध केन्द्र को अपने आँगन की तुलसी समझ नित्य पूजन कर शिरोधार्य किया व नारी समाज के लिए साहित्य जगत में संदेश दिया आश्चर्य है उनके लिये जो इस विधा से अभी तक अनभिज्ञ है। इसी के चलते उन्होंने "लघुकथा के परिंदे" मंच पर सभी को आमंत्रित कर विधा को लेकर अपना सर्वस्व जुटाकर समर्पित किया, वह निश्चिंत ही अंधेरा दूर कर उजाले की ओर बढ़ते कदमों की आहट को सार्थकता प्रदान कर सभी को एक साथ सुर में सुर मिलाने का नया संगीत दिया। लघुकथा शोध केंद्र की ओर से साहित्य मनीषी श्री विष्णु प्रभाकर की स्मृति में समर्पित 'लघुकथा दिल्ली अधिवेशन' गत 17 नवंबर 2019 को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान भवन दिल्ली में आयोजित हुआ था उसकी जितनी सराहना की जाये उतनी कम है।

अधिवेशन के दौरान शोध केन्द्र के लघुकथा संकलन "समय की दस्तक" का भी उपस्थिति समीक्षकों व आलोचकों के बीच विमोचन हुआ था। जिसका कुशल सम्पादन कान्ता रॉय ने व सम्पादक मण्डल ने मिलकर किया। इस संकलन में 100 लघुकथाकारों व 21 विशिष्ट लघुकथाकारों की लघुकथाएं प्रकाशित हुई। साथ ही लघुकथा की उपयोगिता एवं इसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए डॉक्टर अशोक भाटिया (हरियाणा), कान्ता रॉय (भोपाल) ने बहुत प्रभावी समीक्षात्मक विचार रखते हुए विधा की गरिमा का सुंदर चित्रण किया। लघुकथा के संदर्भ में यह बात बार - बार दोहराई जायेगी कि साहित्य की सबसे छोटी विधा लघुकथा कथानक तौर पर अपनी बात रखने का सीधा व सटीक माध्यम है। "समय की दस्तक" ने सभी के दिलों में जो दस्तक दी और इसे विशेष आकार देकर लघुकथाकारों तक वह भी बहुत कम समय में हाथों हाथ पहुँचाया यह शोध केन्द्र के सम्पादक कान्ता रॉय की मेहनत का उत्कृष्ट परिणाम है। शोध केन्द्र से जुड़े उन तमाम लघुकथाकारों व संपादक मण्डल साथियों का सादर आभार जिन्होंने "समय की दस्तक" को  अपनी - अपनी लघुकथा से एक सुंदर व आकर्षक रंग दिया। यह लघुकथा विधा की विशेषता रही कि इसने सभी को समय - समय पर अपनी ओर आकर्षित कर साहित्य में बेहतर लेखन की आशा रख सीखने व सीखाने का बीड़ा उठाते हुए नये सौपान रचे।

जब किसी लघुकथाकार की लघुकथा पर समीक्षा देने का अवसर समय रहते मिलता है तो उसके लिए स्वयं को उस योग्य मजबूत बनाना पड़ता है। विशेष आभार व्यक्त करता हूँ लघुकथा शोध केन्द्र की मनीषी कान्ता जी रॉय का जिनकी अनुमति लेकर 'लघुकथा शोध केन्द्र इकाई महेश्वर' से नवोदित लघुकथाकार के रुप में समीक्षा करने का यह सुअवसर प्राप्त हुआ।

                                                               

संचार क्रांति - अशोक मनवानी, भोपाल, तकनीकी दौर में एक जबरदस्त उछाल आया है। जहाँ पहले सम्प्रेषण संचार के माध्यम टेलीफोन घर - घर में हुआ करते थे वहाँ आज उनकी जगह मोबाईल और आईफोन ने ले ली। रोहित छुट्टियों पर अपने घर आता है और अपनी बहुराष्ट्रीय संचार कंपनी की लोकल कॉल की दर व इसकी उपयोगिता के बारे में अपने दादाजी को बताता है। दादाजी भी उसकी कंपनी की प्रशंसा सुनकर कह देते हैं - 'मैंने तो यह भी कल्पना नहीं की थी कि संचार कम्पनी में काम करते हुए और इतने बड़े पद की तमाम सुविधाएँ लेते हुए मेरा प्रिय रोहित मुझे छह - छह महीने तक फोन नहीं करेगा।"

जब घर के बुज़ुर्ग सटीक व स्पष्ट रूप से अपनी बात रखते हैं तो बच्चे या तो ठीक से जवाब नहीं दे पाते या फिर अनसुना कर देते हैं। रोहित निरुत्तर खड़ा था और उसके पास जवाब नहीं था। लेकिन रोहित चाहता तो अपनी संचार कंपनी में सेवाएं देते समय कभी - कभार समय निकालकर अपने दादाजी से बात कर सकता था। तकनीकी युग में रिश्ते भी कुछ सीमा तक दूर होते जा रहे हैं। लेखक अशोक मनवानी ने स्पष्टता के साथ अपनी लघुकथा में बात कही जो यह संदेश देती है कि - आप कहीं भी रहे, कुछ भी काम करे लेकिन समय के साथ अपनों से बात करना भी जरूरी है। नई सोच - अंजू खरबन्दा, दिल्ली

बाल श्रमिक अपराध है और इसके लिये प्रयास देश में सदैव होते रहे हैं। लेकिन गरीबी के अभाव में बाल मजदूरी दो वक्त की रोटी के लिए कहीं न कहीं गुजर बसर का नाम बनकर रह जाती है। ऐसे में उनका गला सबसे पहले पकड़ा जाता है जो अपने फ़ायदे के लिए बाल मजदूरी करवाते हैं। कुछ ऐसा ही प्रयास लेखिका अंजू खरबन्दा ने किया है जो समाज से बाल मजदूरी को प्रतिबंधित कर नेता लोगों के हुजूम से ढाबा बंद करवाने में सफ़ल रही है, और भीड़ से आती आवाज ने बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी के साथ - साथ कार गैराज में बच्चों को प्रशिक्षण देने का साहस दिखाया। नई सोच सही दिशा देती है, और लेखिका यहाँ न्याय करने से एक कदम भी पीछे नहीं हटी। रीढ़ की हड्डी - आरती रॉय, बिहार

अक्सर जरूरत से ज्यादा काम और जिम्मेद्दारी इंसान को तोड़कर रख देती है। गृहस्थी चलाना कोल्हू के बैल की तरह का काम होता है और लेखिका आरती रॉय ने अपनी रचना में ‘ज्योति’ के साथ इंसाफ भले ही न किया हो लेकिन उसकी वेदनाओं को जिस तरह मार्मिकता से प्रस्तुत किया वह एक कल्पना है, जिसमे हर कोई अपने दुःख के होने का अहसास दिलाता है। जब ज्योति को पता चलता है कि उसकी रीढ़ की हड्डी खिसक गयी तो वह एक राहत की साँस लेती है, परिवार में सबका लालन पालन करने वाली, समय पर हर काम को अंजाम देने के बावजूद भी वह कई रातों तक बिना कुछ खाये भूखी सो जाती थी लेकिन उसके इस दर्द को किसी ने नहीं समझा। अपनों के प्यार की प्यास और उनके करीब न होने का अहसास ज्योति को खलने लगा। इसी प्यास में उसकी रीढ़ की हड्डी खिसक जाती है। जब बेटा माँ से उठने को कहता है तो वह माँ जिसे घर का मुख्य स्तम्भ समझते थे वह माँ अब बहुत दूर जा चुकी थी। वह अब भी रीढ़ की हड्डी बनना चाहती थी इसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं।  चरित्र प्रमाण पत्र - आशीष दलाल, बड़ौदा

किसी भी इंसान का सरल व्यक्तित्व ही उसका चरित्र होता है फिर उसे अपनी कुशल योग्यता के आगे किसी चरित्र प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन जब नौकरी चाहिये होती है तो वहाँ चरित्र प्रमाण पत्र की अति आवश्यकता होती है। जब वह भला इंसान क्राइम ब्रांच के दफ्तर में अपने चरित्र प्रमाण पत्र के लिए गया तो दफ्तर के मैनेजर साहब छुट्टी पर थे लेकिन मैनेजर के असिस्टेंट ने बली का बकरा समझ 100 – 200 रुपए ले देकर उसका चरित्र प्रमाण पत्र देकर अपने चरित्र को दागदार कर दिया था। लेखक आशीष दलाल ने अपनी रचना के माध्यम से समाज के सामने भ्रष्टाचार को लाने का प्रयास किया। कहने की आवश्यकता ही नहीं की आज भी कुछ ले देकर ही काम हो रहे हैं। बदलाव की बयार - अपर्णा गुप्ता, लखनऊ

कुशल बुद्धि वाले बच्चे शरारती और समझदार दोनों होते है और उनका गंभीर स्वभाव भी माँ बाप को देर से समझ आता है। एक महिला लेखक का बेटा जिसे कार्टून और शाहरुख की फिल्में बहुत पसंद है लेकिन जब वह समाचार देख रहा होता है तो उसकी माँ देखकर आश्चर्यचकित रह जाती है, बेटा किसानों की जर्जर स्थिति को समाचार में देख रहा था और कह रहा अपनी माँ से की वह किसानों की व्यथा पर लिखे लेकिन लेखक से पाठक चटपटी कहानियाँ सुनना पसंद करते हैं। जब बेटा हौसला देता है तो फिर अचानक एक माँ जो की लेखक हैं वह अपने बेटे में बदलाव की बयार को सहज महसूस कर रही थी। अपनी रचना में अपर्णा गुप्ता ने एक नया चित्र दिया जो की हर माँ अपने बच्चों मे वह बदलाव देखना चाहती है। मौलिक पहचान - कान्ता रॉय, भोपाल, एक स्त्री का पतिव्रता धर्म अपने पति के लिए बहुत मायने रखता है। वह क्या है उसका प्रॉफ़ेशन क्या है उसके लिए कोई मतलब नहीं। जब रमा सिंह के पास किसी लेखक का फोन आता है और वह रमा सिंह को किसी पुस्तक देने की बात पर पता नोट करवाती है तो लेखक ने पूछ ही लिया कि – आपने पते में ‘पत्नी – रामबहादुर सिंह’ क्यों लिखा?

तब रमा सिंह अपनी पैत्रिक पहचान के आधार पर जवाब देती है। इसी घटनाक्रम में लेखक महाशय जी रमा सिंह की मौलिक पहचान के आधार पर उसके नाम के पते पर डाक भेजने की सलाह देता है, उसे अच्छा लगे इसलिए। कान्ता रॉय ने बड़ी सहजता से अपनी बात रखी और परंपरा को जीवित रखने का बहुत अच्छा प्रयास किया। एक पत्नी की पहचान उसका पति है और वह इसमे संदेह भी नहीं करती कि मैं अपने नाम के साथ पति का नाम क्यों जोड़ू।

उसकी मौलिक पहचान उसके पति से है फिर वह कहीं भी किसी भी नाम व पते पर रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कान्ता रॉय रमा सिंह की मौलिक पहचान बनाने में सफल रही। कमाई - कोमल वाधवानी 'प्रेरणा', उज्जैन, जब बेटा कमाने लायक हो जाता है तो माँ बाप निश्चिंत हो जाते हैं, लेकिन जब कमाऊ बेटा खुद अपनी माँ से मंदिर के सामने भीख मँगवाने का काम करवाए तो सेठजी जैसे भले लोग बहुत दिनों बाद मिलने के बाद भी यकीन नहीं कर पाते कि ऐसा भी हो सकता है क्या ? वह चाहकर भी सेठजी के हाथ से गिरे नोट को उठाने के लिए कतराती नहीं। ‘सेठजी भी देख रहे कि किस तरह वह नोट उठाकर अपने कटोरे में डाल रही है।‘ रचनाकार कोमल वाधवानी ने बड़ी मार्मिकता के साथ रचना पेश की। यकीनन आज समाज को ऐसे लेखकों की बहुत जरूरत भी है जो सच का आइना दिखा सके। विडम्बना - डॉक्टर कुमकुम गुप्ता, भोपाल, स्त्री सशक्तिकरण पर जब – जब कोई नारी अपनी आवाज बुलन्द करती है तब समाज उसकी आवाज को और भी ऊपर उठाने की कोशिश करता है। नीरजा जैसी स्त्री अपने आत्मविश्वास के बलबूते नये कीर्तिमान रच समाज को सही दिशा देने में तो सफल रही थी लेकिन व्यक्तिगत जिंदगी में उसका आत्मविश्वास कमजोर साबित होता जा रहा था। दोहरी जिंदगी जीते हुये नीरजा को पति नकुल का सामना तब करना पड़ा जब वह देरी से रात के दस बजे घर पहुंची। डॉक्टर कुमकुम गुप्ता स्त्री सशक्तिकरण की विडम्बना को लेकर चिंतित रही लेकिन खुलकर वह बात नहीं कह सकी जो कि कहना चाहिए था। यदि स्त्री सशक्त है तो उसे घर और समाज दोनों को लेकर खुलकर सामने आना चाहिए। हालांकि विडम्बना यह थी कि घर पहुँचकर नीरजा पर क्या बीतेगी जब उसका पति उसकी सशक्तिकरण के पीछे उस पर कहीं अत्याचार तो नहीं करेगा। रचनाकार ने अच्छी भूमिका निभाई। जिंदगी की शुरुआत- घनश्याम मैथिल 'अमृत', भोपाल

जब सड़क हादसे में किसी के साथ दुर्घटना हो और कोई समझदार राहगीर मदद के लिए सौ नंबर पर डायल करके पुलिस को बुलाये तो काफी सराहना का काम है। लेकिन जब पुलिस प्रशासन भ्रष्ट हो तो फिर कोई भी किसी की मदद नहीं कर सकता। राहगीर मिन्नते करने लगा मगर पुलिस वाले रौब दिखाते हुये मना करते चलते बने, क्योंकि उनकी गाड़ी खून से खराब न हो जाये इसलिए। उन्हें क्या परवाह किसी की मौत भी आ जाए तो। लेकिन इंसानियत कहीं तो अपना रंग दिखाती ही है। जब नविवाहित शादी का जोड़ा सामने से गुजरा तो अपने आप दूल्हे ने उतरकर मदद करके दोनों घायल युवकों को अस्पताल पहुंचाकर अपना कर्तव्य निभाया और अपने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत उन दो युवकों की जिंदगी बचाकर की। लेखक घनश्याम मैथिल 'अमृत:  ने बड़ी संजीदगी से व निष्ठा के साथ कथ्य व तथ्य दोनों को दर्शाया। एक साथ (राजकुमार निजात)

सेवा करके ही मेवा मिलता है। और सच्चे दिल से बुजुर्गों की, की गई सेवा का फल बड़ा मीठा होता है। अपने नब्बे वर्षीय ससुर की सेवा सुश्रुषा करके शोभा ने जो आत्म सम्मान पाया वह अत्यंत निश्चल रहा। अपनी वयोवृद्ध पीड़ा के आगे शोभा के ससुर जी ने जब अंतिम साँस ली तब शोभा व पति विनोद एक साथ दाह संस्कार करने में पीछे नहीं हटे। आखिर हटती भी कैसे, बाबूजी की बेटी जो थी। रचनाकार ने मार्मिकता के बल पर एक गहरी छाप छोड़ी। जो फर्ज़ बेटे का बनता था वह बहू ने निभाया। जबकि बुढ़ा बाप बेटे के इंतज़ार में रहता था वह आये और पाख़ाना साफ करे। रचनाकार राजकुमार निजात ने रचना को प्रभावी बनाने के लिए इसके कथ्य को जो विशेष बल दिया वह सराहनीय है। भगवान के दर्शन- मालती बसंत, भोपाल

आस्था का मार्ग केवल भक्ति है और मंदिर में दर्शन के लिए हज़ारो कि भीड़ में लाइन लगाके धक्कामुक्की करके स्वयं को और दूसरों को तकलीफ देने का बराबर है। लेकिन जब वी आई पी लाइन में लगकर भी भगवान के ठीक से दर्शन न हो तो फिर आस्था अंदर ही अंदर डगमगाने लगती है। इससे अच्छा है कि आम लाइन में लगकर ही थोड़ा कष्ट सहते भगवान के दर्शन कर लिए जाये। लेखिका मालती बसंत ने अपनी आस्थमायी वेदनाओं को सामने रखने का सफल प्रयास किया है। साहस - विजय जोशी "शीतांशु" महेश्वर, शादी जैसा पवित्र बंधन जब सबकी पसंद से स्वीकार किया जाता है तो फिर वहाँ किसी भी शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती। अनीता ने अपनी पसंद से जहाँ शादी की वह घर प्रेम व सम्मान की वेदियों से भरपूर था। लेकिन जब उसे शादी के बाद शौचालय को लेकर चिंता होने लगती है तो कोई ध्यान नहीं दे पाता, और अनीता शादी के चार दिन बाद ही मायके आ जाती है। वह अपने पिताजी को व्यथा बताती है कि जिस घर में पति का भरपूर प्रेम और विश्वास हैं वहाँ कोई समस्या आ ही नहीं सकती। लेकिन स्वच्छता के चलते गाँव में शौचालय नहीं होने की वजह से स्त्री समाज लज्जित हो ही रही है। ठाकुर जैसे मुखिया के घर अनीता ने बहू बनकर कदम तो रख दिया मगर जब उसे शौचालय के लिए बाहर जाना पड़ता तो उससे रहा नहीं गया। और उसने साहस से काम लेते हुये घर घर में शौचालय हो और स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाये। लघुकथाकार विजय जोशी “शितांशु” ने अपने लेखन में नया विषय लाकर समाज को संदेश दिया। अनीता के साहस ने गाँव के मुखिया ठाकुर की आँखें खोल दी। स्वच्छता का संदेश देते हुये लघुकथाकार ने रिश्तों की बुनियाद पर सार्थक प्रयास किया। खुली किताब - सतीश राठी, इंदौर, इंसान की जिंदगी एक खुली किताब की तरह है, जिसे हर कोई पढ़ सकता है। मगर जब पति पत्नी के बीच आपसी संवाद को देखा जाये तो कहीं न कहीं दोनों खुलकर सामने आने की बजाय अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करते हैं। कथा में पति खुलकर अपने बीते कल को लेकर बताता रहता है। मैं ऐसा था, मैंने ये किया। लेकिन जब वह अपनी पत्नी से पूछता कि अपने बारे में भी कुछ बताओ तो पत्नी भी कह देती - "मेरी जिंदगी की किताब में भी यदि ऐसे ही कुछ पन्ने निकल गए तो क्या तुम भी ऐसे ही मुस्कुरा सकोगे?" अब यहाँ सिवाय गर्दन नीचें करने के अलावा दूसरा रास्ता पति के पास नहीं रहता। लेखक ने बढ़ी पेचिदगी से अपनी बात रखी। आपसी संवाद खुली किताब को लेकर उलझन में भी डाल देते हैं। आप क्या है और क्या थे यह बताने की जरूरत ही नहीं है। खुली किताब को लेकर लेखक सतीश राठी ने पत्नी का पक्ष लेते हुये उत्तम प्रयास किया। पुरुषार्थ इसी में निहित है की पतियों का मुंह बंद करने के लिए पत्नियों का सही समय पर सही बात कहना ही उचित है। संस्कार - सत्यजीत रॉय, भोपाल, कुछ लेने और देने का संस्कार सनातन संस्कृति ही सीखा सकती है। किंतु न देने का अर्थ संस्कारों की कमी है, अवज्ञा है। भिक्षा देना पुण्य का काम है। क्योंकि भिक्षा के बदले दुआएं मिलती है, आशीर्वाद मिलता है। फिर चाहे भिक्षा में 'धूल' ही क्यों न हो। जब वह माँगने वाले के कहने पर भिक्षा में धूल दे रही थी तो उसने आश्चर्यवश पूछा - बाबा, धूल भी कोई भिक्षा है ? आपने धूल देने को क्यों कहा ?

-'बेटी, अगर तू आज ना कह देती तो फिर कभी नहीं दे पाती। धूल ही सही पर देने का संस्कार तो पड़ गया।कल तुम सामर्थवान होगी तो फल भी दोगी।' रचनाकार सत्यजीत रॉय साहब ने यहाँ धूल ही सही लेकिन देने का संस्कार बताया है। आज बेटी धूल देगी तो कल फल भी देगी जब वह संस्कारों के रहते सामर्थवान होगी। संस्कार देने से संस्कार ही बढ़ेंगे घटेगा तो व्यक्ति का स्वाभिमान। लेखक सत्यजीत रॉय ने भिक्षा और उसके महत्व को बहुत बारीकी से बताया। पाठक चाहे तो ऐसे संस्कार से स्वयं भी सीख सकता है। दिखावा - सविता उपाध्याय 'सरिता' गुलावड़, महेश्वर, एक पत्नी एक बहू आखिर जिम्मेदारियों का अखाड़ा होती है। जिसे चारों ओर से घेर लिया जाता है। लेकिन उसकी वेदनाओं की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता। अनिता जैसी पत्नी कोल्हू के बैल की तरह काम करती मगर अपने भाई की शादी को लेकर उत्सुकता दिखाती और उसकी उत्सुकता को तिरस्कार में बदलने में देर नहीं लगती। वह पति अमित के तैयार होने की प्रतिक्षा करती ताकि जल्दी से शादी में जा सके, लेकिन भाई स्वयं अपनी बहन को लेने आ जाता। दिखावे की घड़ी आ ही जाती है, जब अमित झल्लाते हुए अनिता से हमदर्दी जताते हुए अपने साथ जाने को कहकर बात बना देता है। रचनाकार सविता उपाध्याय "सरिता" ने बड़ी संजीदगी से रिश्तों का ताना बाना बुनकर पेश किया है। कहने को अंदर से दिखावे के लिये हर कोई रिश्ता निभाता है, लेकिन हकीकत में रिश्तों की अहमियत नहीं समझ पाता। दिखावा खुद के लिये अपमान बन जाता है, जबकि सच्चे रिश्ते दिखावे से कोशों दूर रहते है। रचनाकार सविता उपाध्याय 'सरीता' ने जागरूकता दिखाने का साहस किया जो बहुत सराहनीय है। विधा विधाता की देन है। और इसमें साहित्यकार को मँझना पड़ता है। जिन पन्द्रह लघुकथाओं पर समीक्षा की गई उसमें अलग - अलग क्षेत्र व परिवेश से जुड़े लघुकथाकार रहे हैं।

'समय की दस्तक' में ऐसे प्रतिभावान देखने में आये जिनकी उत्कृष्ठ लेखनी के आगे एक मेरे जैसे नवयुवा पुष्प लघुकथाकार को सीखने और आगे बढ़ने का अवसर मिला। आप किसी भी विधा में अपनी लेखनी से परिचय दे सकते हैं, लेकिन लघुकथा एकमात्र ऐसी विधा है जो आपको खुलकर लिखने का  अदम्य साहस प्रदान करती है। आपके विचारों में वह सघनता होनी चाहिए जो विधा को लेकर लालयित हो सके। जब तक आप स्वतंत्र विचारों के अधीन रहकर लिखने का साहस नहीं कर पाते तब तक आपकी नैय्या बीच मझधार में डोलती रहती है। लेखक और लेखन दोनों में उसके लेख की प्राथमिकता जरूरी है, फिर वह चाहे क्यों न स्वयं विद्वान हो। यह लघुकथा विधा की गंभीर स्थिति रही कि इसे लेकर लेखकों ने संयम से काम नहीं लिया व मात्र एक दूसरे की देखा देखी लिखना शुरू कर दिया। जब तक स्वयं में समर्पण की भावना नहीं आ जाती तब तक कुछ अच्छा सीखने का प्रयास असफल हो जाता है। लघुकथा जैसी संवेदनशील विधा आपको बाध्य जरूर करेगी परंतु इसकी भूमिका, आकार व शैली कथानक को समझे बगैर कलम चला दी तो यह सरासर बेईमानी होगी स्वयं के साथ भी और विधा के साथ भी। आप प्रकृति प्रेमी हो सकते हैं, आप वन्य संरक्षण प्रेमी हो सकते हैं, आप आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में एक सफल महात्मा भी हो सकते हैं लेकिन आप इन सबके बावजूद साहित्यकार हैं तो आप एक अच्छे लघुकथाकार भी हो सकते हैं। इसके लिए स्वयं आगे आकर हिन्दी भाषा व विधा के प्रति सहयोग देना होगा, और यह साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में बौद्धिकता का वास्तविक परिचय है। लघुकथा के प्रति जो अपने दायित्वों का निर्वाह करते आये वह भी कहीं न कहीं विधा को लेकर एकमत नहीं रहे। उन्हें भी समय रहते पथ संचलन की तरह दूसरों का अभिवादन करते हुए सहजता से परिचय देना पड़ा। जबकि विधा सभी को सीखने का अवसर देती है, दूसरों की रचनाओं से अपनी रचना का आकलन करना उनके लिये आसान हो सकता है जो मार्ग से विचलित है, लेकिन स्वयं की रचना का मुल्यांकन करने वाले कभी विचलित नहीं होते और अक्सर नयापन लाने की कोशिश करते हैं। यहीं विधा की रोचकता भी है। गद्य साहित्य में पिछले कुछ सालों से लघुकथा ही ऐसी विधा सबसे ज्यादा उभरकर सामने आई है, जिसने कीर्तिमान तो रचे साथ ही उन चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा जो रचनाकारों को और भी सक्षम बनाने में सफल रही। आप कविता गुनगुना सकते हो लेकिन लघुकथा नहीं। लघुकथा गुनगुनाने या महात्म्य बढ़ाने के औचित्य से न पहले कभी सामने आई और न कभी आगे आयेगी। हाँ इसकी मौलिकता, सुंदर विवेचना को देखते अनभिज्ञ साहित्यकार जरूर गुणगान करते नजर आयेंगे, जिन्हें कम शब्दों की लघुकथा गीत या कविता लगती है। समकालीन साहित्य का दौर ही कुछ ऐसा चल रहा है कि पुरातन साहित्य से लोग बिछड़ते जा रहे हैं। लघुकथा के ऐतिहासिक पृष्ठों पर पैनी नजर रखते हुए जिन समकालीन साहित्यकारों ने शुद्धता व परिपक्वता की भूमिका निभाई यह अत्यंत गर्व की बात है। उन्हीं के सौम्य, कुशल करकमलों से इस उपवन में नए - नए पुष्प सुशोभित हो रहे हैं। लघुकथा शोध केन्द्र से जुड़े हुए जितने भी साहित्यकार है वह एक परिवार की तरह विधा का लालन - पालन कर रहे हैं जो कि सदैव सीखने व सीखाने के प्रति तत्पर रहते हैं। कान्ता रॉय, मालती बसंत, विजय जोशी 'शीतांशु', अंजू खरबन्दा, घनश्याम मैथिल 'अमृत', मुज्फ़्फ़र इकबाल सिद्दिकी, पवन जैन, जया आर्य, सायरा सिद्दीकी, प्रेरणा गुप्ता जैसे माली हो जहाँ, बगिया में बहार तो आयेगी ही। 'समय की दस्तक' अपने आपमें एक नये क्लेवर में सामने आई जिसमें कहीं से कहीं तक निराशा देखने में नहीं आई। कान्ता रॉय के कुशल सम्पादन से जो पुस्तक को विशेष आकार मिला वह भटके मुसाफ़िर के लिये ठहराव है जो स्वतः समय देख दस्तक देकर ठहरेगा और विविध कथाओं का रसास्वादन कर एक लम्बी साँस लेगा और फिर पुनः यात्रा में चलते आगे नवीन रचनाओं का पाठ करेगा। अधिवेशन उपरांत कान्ता रॉय ने हाथोंहाथ डाक द्वारा समय की दस्तक की तीन कृतियां लघुकथाकारों व पाठकों तक भेजी यह उनका विधा के प्रति सहर्ष समर्पण है। पुनः विशेष आभार कान्ता रॉय का। समय अपने आपमें बलवान है। कहना उचित नहीं कि मुझ नवोदित लघुकथाकार ने लॉकडाउन के चलते अवसर का लाभ उठाते 'समय की दस्तक' पर पन्द्रह लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर स्वेच्छा से समीक्षा की। इसके पीछे डॉक्टर कान्ता रॉय जी का मात्र आशीर्वाद व उनकी अनुमति रही। यह विधा के प्रति प्रेम व सहयोग है जिसकी प्रेरणा लघुकथा शोध केन्द्र इकाई महेश्वर के संयोजक विजय जोशी जी 'शीतांशु' व केन्द्र प्रधान कान्ता रॉय जी के आशीर्वाद से मुझ नन्हे, चंचल व्यक्तित्व वाले को 'समय की दस्तक' पर स्वतंत्र रुप से अपने समीक्षात्मक, आलोचनात्मक विचार रखने का अवसर मिला। 'मेरा प्रयास ही मेरा दायित्व है।' और निश्चिंत मैं लघुकथा शोध केन्द्र के प्रति माँ अहिल्या की नगरी महेश्वर समीपस्थ रहते अपने दायित्वों का निर्वाह करुंगा। एवं आशा करता हूँ उन समस्त लघुकथाकारों, पाठकों व साहित्य प्रेमियों से जो आने वाले समय में लघुकथा को उच्च से उच्च शीर्ष पर पहुंचाने का प्रयास करेंगे।

मनीष कुमार पाटीदार

मोबाईल नंबर - 84357 - 40937

email address - kumarmanishpatidar@gmail.com

लघुकथा शोध केन्द्र, इकाई-महेश्वर




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