भूमण्डलीकरण और कहानी

 

भूमण्डलीकरण और कहानी

कान्ता रॉय 

 भूमण्डलीकरण और कहानी विषय बहुत गम्भीर है। साहित्योत्सव में इस मुद्दे को चर्चा का केन्द्र बनाना एक सार्थक पहल है। इस विषय पर  चिंतन का व्यापक परिवेश है। आज इस भूमण्डलीकरण के दौर मेें हिन्दी साहित्य अपने  संस्कार व संस्कृति से दूर होता प्रतीत हो रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने साथ सिर्फ व्यवसाय ही नहीं बल्कि एक नयी संस्कार, ब्राँडडेड, पॉलिश्ड बिहेवियर की पूरी जमात लेकर खड़ी है.

भूमंडलीकरण का प्रभाव हमारी पारिवारिक संरचना पर गहराई से पड़ता दिखाई पर रहा है। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ने ले लिया है जिसके कारण हमारी समृद्ध पारिवारिक परम्परा का हास हुआ है। हमारी आदत रही है पड़ोसी के थाली के घी को अधिक समझने की जिसका खामियाजा हमारी भाषा भोग रही है. कहानी की पृष्ठभूमि भी इससे  प्रभावित हुई  है इसमें जरा भी शक नहीं। वर्तमान की कहानियों में भारतीय संस्कार का विलोपन देखने को मिल रहा है। मिडिया द्वारा घर-घर पश्चिमी सभ्यता ने डेरा डाल लिया है. आज की शिक्षानीति भी इस भूमण्डलीकरण की शिकार हुई है. कहानी की पृष्ठभूमि भी इससे  प्रभावित है। वर्तमान की कहानियों में भारतीय संस्कार का विलोपन देखने को मिल रहा है।

 समाज के धरातल पर साहित्य गतिमान रहता है इसलिए जब भूमंडलीकरण का प्रभाव हमारी पारिवारिक संरचना पर गहराई से पड़ता दिखाई पर रहा है तो साहित्य, खास कर कहानी जो सामाजिक व पारिवारिक सरोकार के अंतर्द्वंद्व को उभारती इकहरी विधा है उसको वैचारिक स्थापना के लिए अग्रसर होना होगा। कहानी के छः मुख्य तत्व कथावस्तु , चरित्र चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, भाषा-शैली व उद्देश्य. इन समस्त छहों तत्वों पर भूमण्डलीकरण का संक्रमण आज परिलक्षित है। ऐसे में कहानी का कद उसका कथानक आत्मकेन्द्रित होती हुई प्रतीत हो रही है। इस तरह हम पाते हैं कि कहानी लेखन भयंकर चुनौतियों के दौर से गुजर रहा है। पाठकों की कमी  और लेखन का दायित्व -बोध आत्मकेन्द्रित कहानियाँ बहुतायत संख्या में पढ़ने को मिल रही है।

दरअसल  यहाँ एक बहुत बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि भारतीय लेखक होने कोे कैसे  दायित्व निर्वहन के लिए समझना है? क्या सिर्फ भारत में जन्म लेने के कारण हम भारतीय लेखक होने को संदर्भित करेंगे?

 नहीं,  मेरी नजर में भारतीय लेखक भारतीय परम्पराओं के लिए लेखन करें, तभी वे भारतीय लेखक को परिभाषित करेंगे। हमारी निष्ठा हमारी संस्कृति के हास होने से रोकने के लिए हो। हमारी कलम भारतीय संस्कार उसके  मुल्यबोध को मजबूती से बाँधे, कस कर पकड़ बनाए ऐसा कुछ लिखना होगा।

असंतुष्टि, हिंसा, नकारात्मक कथ्य को पकड़ , अपनी कुंठाओं को कलमबद्ध करने के लिए कलम का  नकारात्मक उपयोग हो रहा है। ऐसे विषयों पर केन्द्रित न कर मुख्यतः कलम को  सकारात्मक कथ्य   का उभार कहानी में  आना चाहिये.

लेखक को समाज का डॉक्टर कहा गया है इसलिए कथाकार को अपनी कल्पनाशीलता से शाल्य-चिकित्सक बन कर आगे सृजन को परिणाम देना है. अंतरकलहों पर अंकुश लगाने हेतु, सोच को सही दिशा में ले जाने हेतु यथार्थ से परे काल्पनिकता को भी गढ़ना पड़े तो गढ़ा जाना आवश्यक है।

दूरसंचार क्षेत्र की प्रगति जहाँ सैकड़ों चैनल दिखाई जाने लगी है। कोई भी विषय सिर्फ अंगुलियों के हरकत पर आँखों के सामने पल भर में हाजिर हो जाता हैं। यानि  विश्व की सभ्यता व संस्कृति हमारे बैठक में अपना प्रभाव जमा चुका है, इम्पोर्टेड समान के साथ हमारी सोच भी इम्पोर्ट हो चुकी है। जब हमपर भूमंडलीकरण का प्रभाव है तो साहित्य कहाँ से अछूता रहेगा। इसलिए वैचारिक परम्पराओं के अनुसरण करते हुए काम करना है क्योंकि जब-जब परिवेश साहित्य को प्रभावित किया है, तब-तब साहित्य भी परिवेश के ऊपर अपना असर प्रभावी रूप से डाला है ।

देश जब मूल्यों का द्वंद्व भोग रहा है ऐसे में हमें अपने वैदिक संस्कार और विरासत की ओर लौटते हुए आज के संदर्भ से उसे  जोड़कर कहानी के कथ्य में विकसित करना होगा। संघर्ष का अन्तरद्वन्द्व उभरकर आना चाहिये। प्रगतिशील अभिव्यक्ति ही फलीभूत हो यह जरूरी है।

पंचतंत्र, कथा-सरित्सागर जैसी हमारी समृद्ध कथा परिवेश ने हमेशा से विश्व को प्रभावित किया है। भूमंडलीकरण के इस दौर में हम अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव आज की कहानियों में देखते हैं। आज भारतीय लेखक अंग्रेजी ढंग के लेखन को प्राथमिकता देते हैं। पुरानी परम्परा से इतर आधुनिक ढंग की कहानियों में  देखते हैं कि एक लेखक परम्परा वादी लेखन से मुक्त होना चाहता है। यह भी तो एक विडंबना ही है। यही कारण है कि हमारी जातीय संस्कृति का लोप धीरे-धीरे हमारी कहानियों से होना शुरू हो गया है। पढ़े-लिखे होने को हम विदेशी संस्कार में स्वंय को बदल कर साबित करना चाहते है और यही मानसिकता समकालीन  कहानियों से बाहर आ रही है। 

हमारी सभ्यता कृषि प्रधान देश के होने में है जबकि पश्चिमी सभ्यता व्यवसाय प्रधान है। वहाँ परिवार का मतलब स्त्री और पुरुष होता है जबकि हमारे यहाँ परिवार का अर्थ है सम्मिलित कुटुम्ब। हमारी सभ्यता का आधार धर्म है और पश्चिमी सभ्यता सिर्फ धन को ही आधार मानती है। भूमण्डलीकरण ने हमारी सभ्यता पर कुठाराधात किया है अब हम ध्यान, योग, धर्म परिवार के राह को भूल वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहें हैं।

मैंने "आदि-अनादि" चित्रा मुगदल जी की कहानी-संग्रह पढ़ते हुए उसमे  वर्तमान की जिजीविषा को अपने संस्कार के लिए छटपटाते हुए देखा है। चित्रा मुग्दल जी की 'वाईफ स्वैपी' जैसी कहानी  भूमण्डलीकरण का ही परिणाम है जो हमारे  वर्तमान परिवेश की नैतिक पतन  को चिन्हित कर रही है। उनकी कहानियों में संस्कृति व संस्कार से संधर्ष दिखाई देता है। उनके पात्र आधुनिकता का मुखौटे पहने स्वंय से अंतर्द्वंद्व कर रहें हैं।

राजनारायण बोहरे जी की कहानियों में पारम्परिकता से आधुनिकता की ओर बढ़ने की छटपटाहट को सहज ही महसूस किया जा सकता है। 'बिजनेस वेव डॉट कॉम' या 'कमजोर कड़ी' परिवेश वर्तमान से  ही होता है.उनके पात्र हमारे बीच से ही गढ़े गये होते हैं चाहे वे ऑफिस के कर्मचारी हो या घरेलू स्त्री।

मालती जोशी जी की कहानियों  में पात्र का भटकाव को  भारतीय संस्कार का ठिया मिलता दिखाई देता है। वे परिवेश के मर्म को बखूबी परिभाषित करती है।

पिछले साल हमारे करनाल के सुप्रसिद्ध साहित्कार अशोक भाटियाजी से एक पुस्तक जो कहानी संग्रह है तारा पांचाल की कहानियों का संग्रह है मैंने उनसे पंजाब में प्राप्त किया.  साहित्य व्यवहार में आपकी सभी कहानियाँ प्रगतिशील अभिव्यक्ति है। बनावटीपन से दूर लोक-व्यवहार उनकी कहानियों से झलकता है।

सूरजप्रकाश जी की कहानियों में वैश्वीकरण का प्रभाव सबसे अधिक   देखने को मिला है. उनकी कहानी "लहरों पर बाँसुरी" के कथ्य में पश्चिमी झलक साफ़-साफ़ दृष्टिगोचर है.

अब्दुल बिस्मिलाह जी की कहानी 'जीना तो पड़ेगा' भारतीय परिवेश   की विशुद्ध कहानी  है.पिछले दिनों उनसे मिलना हुआ और कई घंटे हमने साथ बिताये भी. वैदिकता को कथ्य देना मैंने उनसे जाना  है.

भारतीय लेखक भारतीय मूल्यों को वर्तमान परिवेश में रोचकता से, नयी सकारात्मक दृष्टिकोण से लिखें यह जिम्मेदारी है। कथा वस्तु में पात्रों के चरित्र चित्रण करते हुए हमें सुसंस्कारित परिवेश को लिखना होगा ताकि हम अपने भारतीय लेखक होने के दायित्वबोध को समझ सकें।

'अजुध्या की लपटें' और अपना -अपना नरक' कहानीकार संतोष श्रीवास्तव जी की  दो अलग-अलग विसंगतियां परिवेश  एक परम्परावादी तो  एक वर्तमान समाज, कथ्य को  साधने  का  एक अलग ही शैली देखने को मिलती है.

सुभाष नीरव जी की कहानियों में भी आधुनिकता की झलक  वर्तमान परिवेश के चित्रण में  संस्कृति पर ठहराव नजर आ जाता  है ।

मृदुला गर्ग जी हो  या  सुधा भार्गव या  'कस्बाई सिमोन' शरद सिंहसमकालीन लेखन  में  सभी का अपना -अपना वर्चस्व है. स्वाति तिवारी जी की कहानियों में सुसंस्कारित कथ्य होता है लेकिन वे रुढ़िवादिता पर  ठीक चित्रा मुग्दल और मैत्रेयी पुष्पा की तरह ही करारी चोट करती नजर आती है।

बदलते देश और काल में,कहानियों में अब नई तेवर दिखानी होगी।क्या लिखना होगा, कैसे लिखना है, परम्परावादी लेखन से आज के युवा वर्ग की सोच को कैसे संदर्भित करेंगे? प्रहलाद, श्रवण कुमार को किस तरह आज की  युवाओं के चरित्र चित्रण करते हुए जोड़ने का काम करेंगी।

उनमें वैश्‍वीकरण, सूचना तंत्र और बाजारवाद की अनुगँज के साथ ही परम्पराओं को मजबूती से मुखरित करना है।अतः  समाजोन्मुख सर्जना हो यह जरूरी है। नयी नयी अवधारणाओं को परम्पराओं से जोड़ कर समकालीन कहानियाँ लिखना है। वैदिक साहित्य, इतिहास, दर्शन के अंतःसम्बंधों की गहनता से कथ्य बुनकर हमें इस दौर में संस्कृति को सुरक्षित रखना है। बदलाव के इस वेग में हुमारी पहचान न बह जाए ये  याद रखें।


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