विविध विषयों पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होती लघुकथाएँ

 विविध विषयों पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होती लघुकथाएँ 

                                         - कान्ता रॉय 



'बालमन की लघुकथा' पुस्तक का उद्देश्य हमारे आधुनिक भारत के बच्चों पर केन्द्रित करते हुए यथासंभव उनके मनोविज्ञान और व्यवहार को सामने रखकर समझने की एक नवीन कोशिश है। ‘गया प्रसाद खरे स्मृति साहित्य, कला एवं खेल संवर्धन मंच’ के संयोजक श्री अरूण अर्णव खरे नेजब मुझे लघुकथा-विधा पर  पुस्तक- संपादन के लिए कहा तो मेरे मन में आया कि क्यों न इस बार बालमन से जुड़ी बातों को पुस्तक का केन्द्र बिन्दु बनाऊं, इसका कारण यह था कि लघुकथा के संदर्भ में बच्चों को लेकर सबसे कम काम हुआ है। यहां श्री महेश सक्सेना बच्चों के लिए ‌समर्पित होकर जिस तरह से काम कर रहे हैं वे भी कहीं न कहीं पुस्तक के लिए प्रेरणा के मूल में हैं। पुस्तक के लिए प्रेरणा हमारे मोहल्ले के बच्चे भी हैं जिनके लिए अक्सर मैं लघुकथा शोध-केंद्र भोपाल मध्य प्रदेश की मासिक गोष्ठी आयोजित करती रहती हूँ|

विसंगतियां क्या हैं?- इसका जवाब मैंने बच्चों को समझाते हुए कुछ अलग तरीके से उनकी ही भाषा में दिया था - हुआ ये था कि एक बार अपने गली के मोड़ पर खेलते हुए बच्चों को देखा तो मुझे लगा यहां लघुकथा की नयी जमीन तैयार हो सकती है। कुल मिलाकर सात-आठ बच्चे थे लेकिन मेरे लिए वहां काम करने को बहुत कुछ था। उस दिन शाम के पाँच बजे सबके सब खेलने के मूड में थे। मुझे देखते ही सबने एक स्वर में कहा - गुड ईवनिंग मैम!

मैं प्रेस से वापस आ रही थी। काम आशा के मुताबिक बेहतर हुआ था इसलिए रिलेक्स मूड में थी सो मैंने भी रुक कर बच्चों के विश का जबाव दिया और पूछा - आप सबसे लघुकथा लिखने को जो कहा था, क्या किसी ने लिखी है? एक ने कहा कि - हाँ, उसने लिखी है। बाकियों में से दो ने हामी भरी। मुझे अच्छा लगा।

मैंने उसी वक्त अपने मोहल्ले की उस गली में उन्हीं बच्चों के साथ आज शाम को एक लघुकथा कार्यशाला आयोजित करने का निश्चय किया, जिसमें मैंने उन्हें लघुकथा लेखन सम्बंधित तमाम तकनीकें बतायी। मैंने उन्हें समझाया कि लघुकथा क्यों लिखी जानी चाहिए, लघुकथा पढ़कर पाठकों में क्या असर हो सकता है। लघुकथा हमारे समाज की दिशा बदलने में किस प्रकार काम कर सकती है? हमें क्यों लिखना चाहिए, क्या लिखना चाहिए, कैसे लिखना शुरू करना है इत्यादि।फिर अपनी लघुकथा संग्रह में से कुछ लघुकथाएँ उनको सुनाई। मैंने उन्हें विसंगतियों को समझाते हुए बताया कि हमारे जीवन में, घर या समाज में ऑड सिचुएशन होना विसंगति है। यह ऑड पॉजिटिव भी हो सकती है और निगेटिव भी। इन ऑड्स को ऐसे लिखिए कि पढ़ने के बाद पाठकों पर असर हो, उनके अन्दर अच्छी या बुरी एक फिलिंग महसूस हो।

उस दिन के उपरांत बच्चों ने मुझे आश्वासन दिया कि वे मुझे लिख कर देंगे। लघुकथा संदर्भ में उस वक्त बच्चों को देने के लिए मेरे पास ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी जिसे हम उन्हें पढ़ने के लिए कहें। बच्चों में हिन्दी के प्रति ललक देखकर आश्वस्त हूँ इसलिए अब मेरा पूरा ध्यान बच्चों के ईर्द-गिर्द अधिक काम करने पर बल देना है।इस पुस्तक में बालमन पर केंद्रित विषयों को लेकर लघुकथा  संकलित की गई है। कहीं कहीं बालपन की भाषा भी है और उनका दृष्टिकोण भी है। लेकिन अधिकतर लघुकथाएं समाज के चिंतन करने योग्य जरूरी विषय वस्तु चिन्हित किए गए हैं।

पुस्तक के माध्यम से भारतवर्ष के अलग-अलग हिस्सों में, जीवन में आए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में बच्चों पर समाज और परिवार के व्यवहार का अध्ययन किया गया है। एक तरफ सुविधासंपन्न खाए-अघाए, मुटे-मुटाए बच्चे हैं तो दूसरी तरफ पीठ तक धँसे पेट की जिजीविषा। कृतज्ञ-भाव से लोहे की जालियों के पार से झांकते अनाथालय के बच्चों की आँखें भूले नहीं भुलाया जा सकता है।बच्चे निश्छल-निष्कपट होते हैं। गीली मिट्टी से कोमल बच्चों को जब समय के चाक पर घुमते हुए अनगढ़ता से गढ़ते हुए तपते हुए बिगड़ते आकार, भविष्य के अंधकार के आसार को देखते हैं तो मन काँप उठता है। भारत के जनमानस में बच्चों के प्रति सचेतनता को बनाए रखने के लिए यह पुस्तक मात्र एक प्रयत्न भर है।

लघुकथा विसंगतियों की कोख से ही जन्म लेती है-इस बात को अधिकतर लेखक स्थूल रूप में समझते हुए विसंगतियों को ही बढ़ा-चढ़ा कर लिख कर चिंतन हेतु चिंहित करने की कोशिश में लग जाते हैं जो लेखन को गलत दिशा में लेकर चला जाता है और लघुकथा का उद्देश्य भटक जाता है। लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती है अर्थात विसंगतिपूर्ण अवस्था से गुजरते हुए जब उस दशा के निवारणार्थ चिंतन के प्रतिफल में नवीन दृष्टिकोण को अनकहे में सृजन करते हैं तो उस सृजन द्वारा ही लघुकथा बनती है। अर्थात लघुकथा विसंगतियों में नहीं बल्कि उसके लिए चिंतनशील होने की ओर ले जाने के निष्कर्ष में बनती है।

लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती है यानी 'जन्म लेती है'। विसंगतियां दूर हो उसके लिए नवीन सोच लिखना ही लघुकथा है। जब तक नवीन दृष्टिकोण का आपकी लघुकथा में सृजन नहीं होगा तब तक विसंगतियों की कोख से लघुकथा जन्म नहीं लेगी। लेखक को समाज का डॉक्टर कहा गया है। कथाओं में विसंगति को चिन्हित करना अर्थात आपने बीमारी डायग्नोसिस तो कर लिया लेकिन लेखक (डॉक्टर) होने की भूमिका कहाँ निभाई?बच्चे कच्ची माटी हैं। वे ज्यों ज्यों बढ़ते हैं उनका आचरण, व्यवहार और व्यक्तित्व आस-पास के वातावरण के अनुसार विकसित होता चला जाता है अर्थात हम उन्हें जैसा समाज, परिवार देंगे वे उसी के अनुसार विकसित होंगे।कहने को एन.जी.ओ., बाल संरक्षण विभाग के अंतर्गत अनेकों बाल संस्थान हैं। बाल शिक्षा के लिए, बालश्रम उन्मूलन अभियान के तहत कानून भी बनाए गए हैं फिर भी स्टेशनों, शहर की गलियों, कचरे के ढेर में से पन्नियां बीनते, चौराहों पर रुकी हुई गाड़ियों के ईर्द-गिर्द सामान बेचते बच्चे कैसे अनदेखा रह जाते हैं। कहां है ‘शिक्षा का अधिकार’, 'बचपन का अधिकार' इत्यादि रक्षा करने वाली कानून?

इन्हीं समस्याओं पर चर्चा के निमित्त पुस्तक में तैंतीस लघुकथाकारों ने चिंता व्यक्त करते हुए कुछ नवीन प्रयास गढ़े हैं। इस पुस्तक की शुरुआत मैंने रविन्द्रनाथ टैगोर की लघुकथा 'नटखट बालिका' से की है जिसमें दादा और उसकी नन्हीं बहन के बीच संवादों द्वारा कथ्य रोपित किया गया है। अबोध बच्ची के मन में चाँद पाने की लालसा माँ के करीब होने जैसा है। वह चाँद और अपनी माँ के बीच कोई भेद नहीं समझती है। भोलेपन को जिस तरह इस लघुकथा में रविन्द्रनाथ टैगोर सुरक्षित रखते हैं वह मनभावन है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखी गई इस लघुकथा से लेकर इक्सवीं सदी के प्रारंभ तक इन सौ सालों में समय बहुत बदला है लेकिन बचपना नहीं बदला है तभी तो अरूण कुमार गुप्ता की लघुकथा 'दीमक' में भी सुधीर का बेटा भोलेपन में अपने पिता द्वारा रिश्वत की चर्चा करते सुनकर कह बैठता है -"पापा मुझे भी एक दिन रिश्वत खिलाओ ना।"

अरूण अर्णव खरे की 'इंजेक्शन' में भी यही भोलापन देखने को मिलता है जब किसान रघु की लाचारी देखकर उनको सब्जियों में लगाने वाली इंजेक्शन लाने की बात सुनकर उसका बेटा कह उठता है कि-".....आप शहर से दो इंजेक्शन लेकर आना, एक सब्जी को लगाना और दूसरा मुझे जिससे मैं भी जल्दी से बड़ा होकर आपका हाथ बंटा सकूं।"

अर्चना मिश्रा की लघुकथा में बालश्रम के पीछे हम सबके अंदर दोहरी मानसिकता को इसका कारण होने को चिन्हित करते हुए पाठकों को खुद के अंदर झांकने पर विवश किया है। अर्चना मिश्र की लघुकथा 'असली चेहरा', 'बेबसी की पीड़ा' और 'मुनिया लाई खुशियाँ' में 'कथ्य बच्चों के इर्दगिर्द घुमती है एवं 'चमत्कारी बैल' में बैल के साथ प्रभावपूर्ण तरीके से पूजा और गुल्लू की मनोदशा को चिन्हित किया है|अनीता झा की लघुकथा कोमलता लिए हुए है। चाय पाव रोटी में मेहनतकश को प्रेरित करते हुए संवेदनात्मक बुनावट है। 'पापा से दूर' में बच्चे का माता पिता के प्रेम विवाह के परिणाम स्वरूप तलाक के बीच मनोदशा को लेकर अंत में सकारात्मक सोच को बुनते हुए बचपन को सुरक्षित रखने की कोशिश की है।

      अर्पणा गुप्ता ने 'नियति', 'नई जिंदगी' सहित अपनी लघुकथाओं में अपरिपक्व बालपन और उसके आसपास के माहौल को चिन्हित करते हुए एक नवीन परिपाटी की लघुकथा लिखी है।

कनक ए. हरलालका ने 'भूख','अमावस', 'हिम्मत' जैसी लघुकथाओं में अबोधगम्य किशोरावस्था की मानसिक स्थिति पर पाठकों का ध्यान खींचने की कोशिश की है जो लघुकथाओं के कलेवर को पुष्ट करता है। कल्पना मिश्रा एक सजग लेखिका हैं। उनकी लोकप्रियता जगजाहिर है। बाल-मनोविज्ञान की लघुकथाओं में 'सिगरेट', 'पासा', 'टीवी' इत्यादि रचनाओं के माध्यम से मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो रही हैं।

कृष्णा मनु वरिष्ठ लघुकथाकार हैं और वर्षों से निरंतर लघुकथा लिख रहे हैं अतः वे पूरी जिम्मेदारी से लघुकथा मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश में रहते हैं। किशोर वय तीन लड़कों की मनोदशा एवम गरीबी के साए को 'सपनों में क़ैद जिंदगी' में, अंग्रेजी के प्रभाव में हिंदी पर 'हिंग्लिश' लघुकथा के जरिए विचार पक्ष रखते हैं। इसी तरह 'अनुभव', 'ममता की जीत' लघुकथा भी अपने तरह की अलग पहचान कायम करती है।

 डॉ.कुमकुम गुप्ता की लघुकथाओं में मानवीय संवेदनाओं को उठान मिलता है। 'अवसरवादिता' लघुकथा घरों  में पश्चिम का बढ़ता प्रभाव इंगित करती है तो वहीं 'स्मार्ट' लघुकथा में बेटी का माँ को स्मार्ट बनाने की एक मनोहारी दृश्य अंकित हुआ है। 'आईडिया' में परिवार में मोबाइल का असर और 'कटर' लघुकथा में मां के जन्मदिन पर बच्चों का उपहार सब्जी कटर देखकर मां को हामिद की चिमटे को याद करना एक इमानदार लेखन है। यह लघुकथा मां और बच्चे के बीच सम्बन्धों का वह  यथार्थ है जो सदियों से अब तक की संवेदनाओं को सुरक्षित रहने का एहसास दिलाती है।कोमल वाधवानी प्रेरणाकी लघुकथा  'सॉरी अम्मा' में संजू को मां की सीख, 'गर्मी की छुट्टियाँ' में चिड़िया का खाली घोंसला देखकर नन्हीं शालू का नानी के घर जाने की बात, 'दो मासूम' और 'दादाजी के अंगूर' इत्यादि रचनाओं में मासूमियत को बड़ी सहजता से लिखा गया है जो रोचक है।

डॉ.चंद्रा सायता की लघुकथा 'एक पहल बेटी के नाम' में सड़क किनारे गरीब बच्चों की दिनचर्या पर कथ्य है तो वहीं 'माटी कहे कुम्हार से' में कुम्हार से मटके की बातचीत के सहारे  प्यासे परिंदों को जल देने के विचार को अभिव्यक्त किया गया है। ज्योति शर्मा की लघुकथाओं में बड़ी संजीदगी से कथ्य को विस्तार देने की सफल कोशिश दृष्टिगोचर होता है। 'कथनी और करनी' में दोहरी मानसिकता में पिसते हुए बच्चों की बातें हैं।'घर' में घर बनाने वाले बेघरों के बच्चों की बातें हैं तो वहीं दूसरी ओर 'जू..जूजू..जूता' संवेदनाओं को उठान देती एक कलात्मक अभिव्यक्ति है।'मासूम प्रश्न' के प्रश्न 'मथली जल की रानी है.....' मासूम संवादों के जरिए मांसाहार पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। बेशक ये लघुकथाएं इस पुस्तक को सार्थक करती है।

जया आर्य 'काला गोरा','जीने की कला', और 'ये तो होना ही है' के माध्यम से मां के प्रति बच्चे का अनुराग, स्पेशल चाइल्ड की दृढ़ता, पर्यावरण से जुड़े कथ्यों को स्ट्रीट डॉग्स के लिए चिंता करने को लेकर विविध विषयों पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होती है।

      प्रेरणा गुप्ता 'आई लव यू दादी', 'एंटी रिंकल', 'टच फोन का टच', 'महलों के ख्वाब' जैसी लघुकथाओं के माध्यम से दादी और मनु के बीच, दादी और चीनू के बीच,जयन का तेज बुखार में पापा-पापा की रट लगाना, नौकरानी की बेटी होने पर... इत्यादि दृश्यों के साथ जीवन के पहलुओं से संवेदनाओं के आधार पर पृथक-पृथक संवाद स्थापित करती हैं। बीना शर्मा 'जड़' का जमीन से जुड़े होने को वृद्धाश्रम में रहने वाले के दर्द को, 'दवाई' में भूखे होने की बीमारी,'किरण' में माँ और बेटे का रिश्ता, 'जल है तो कल है' में प्यासी चिड़िया, 'लालच' में चॉकलेट टॉफी देने की लालच में बच्चों को बहकाने के प्रति संचेतना जगाने के तहत जीवन के विभिन्न शाखाओं से, दृष्टिकोणों से रचनाओं का सृजन हुआ है।

      डॉ. मालती बसंत की प्रबुद्धता उनकी लघुकथाएं 'अनुभव', 'आत्मविस्मृति', 'भाग्यशाली' जैसी परिपक्व दृष्टिकोण से अवगत कराने में सफल है। निश्चित तौर पर इस पुस्तक में वे हमारी धरोहर हैं।डॉ. मिथिलेश दीक्षित निबंधकार होने के साथ साथ हिंदी साहित्य की लघु विधाओं की विद्वान है। वृहत और लघु का समावेश वे अपनी लघुकथाओं में बड़ी बारीकी से करती हैं। 'परवाह' में सौतेले बेटे को, 'निर्णय' में कबाड़ी का धंधा करने आए लड़के, 'लड़की' में बच्चों में जातिगत भेदभावपूर्ण व्यवहार से अनभिज्ञता से माँ की दोहरी सोच, 'दर्द की रेखाएँ' और 'छोटी कोठरी' में घर में वृद्ध सदस्यों के साथ व्यवहार को अलग-अलग कलेवर में उपयोग किया गया है।मिन्नी मिश्रा की 'रास्ता' मानवेत्तर लघुकथा है जिसमें कुत्ते और बिल्ली के माध्यम से कथ्य रोपित किया गया है। अपने रास्ते पाने हेतु प्रयास करने को बल मिला है चाहे उसके लिए भौंकना ही क्यों न पड़े। 'मंदबुद्धि', 'प्रेम की भाषा' सहित 'नीलकंठ' के जरिए पर्यावरण, पारिवारिक रिश्तों को विभिन्न तरह से सम्प्रेषित किया गया है।डॉ.नीना छिब्बर की लघुकथाएं अपने तरह की एक अलहदा सौंदर्य लिए हुए है। 'सोनपरी की चिठ्ठी', 'जुगाली', 'नज़रबंद',  'पद चिन्ह' सामाजिक दायित्व बोध के तहत सम्बन्धों की महत्ता पर परिपक्व बुद्धिमत्ता को दर्शाता है।

      नीरज सरस जैन युवा रचनाकार हैं। आपकी तर्कशक्ति मजबूत है। इन्हीं तर्कसम्मत तरीके से 'कहानी घर घर की' में बच्चों पर माता पिता के आचरण का पड़ता प्रभाव को कथ्य दिया गया है। 'गिल्ली का रहस्य' में धापू मौसी और बच्चों के बीच एक संवेदनशील रिश्ते को गुना गया है। 'देवराज और ऐश्वर्या', 'जीवन चक्र' में संरचनात्मक सौष्ठव परिलक्षित होता है।

रेनू गुप्ता की लघुकथा 'परी कब बड़ी होगी?', 'सवाल', 'सपने', 'गुब्बारे' इत्यादि लघुकथाएं बच्चों के कोमल मन को जाहिर करते हुए पाठकों के साथ बेहद आत्मीय लगाव जोड़ लेती हैं।

वंदना सहाय विवेकशीलता से 'वहम', 'जल ही जीवन है', 'मेहनत की रोटी' जैसी लघुकथा में नए तरीके से विचार-तथ्यों को प्रस्तुत करती दिखाई देती है। अपनी विशेष शैली में बात को सहजता से लिखा है।विभा रश्मि की वरिष्ठता उनकी लघुकथाओं से झलकती है। 'चाबी का खिलौना', 'संस्कार', 'फ़र्क',  'प्रसन्नता' जैसी लघुकथाएं बालमन का विश्लेषण है। विजय जोशी 'सद्भावना', 'पड़ोसी', 'कल्पना लोक' इत्यादि लघुकथाओं के माध्यम से बच्चों के मन के भीतर की जिज्ञासाओं को आधार बनाकर चिंतन के लिए ध्यान खींचते हैं। रचनाकार चाहे किसी भी क्षेत्र में काम करे, कलात्मक कौशल  उसके सहज गुण होते हैं। डॉ.क्षमा सिसोदिया के मन में पलती बचपन की 'किलकारी', 'अबोध मन', 'शाश्वत सच' जैसी लघुकथाएं रचनाओं की विशेषता बनकर उभरी है। चिंतन की विशिष्ट मूल्यवत्ता कथा को पढ़ने को प्रेरित करती है।

      सुनीता प्रकाश की 'पपी', 'सायानी बिटिया', 'कामकाजी', 'दादी' बचपने को ऊहापोह से निकाल कर सही दिशा में प्रेरित करने में सामंजस्य बिठाने के लिए अपना उद्देश्य स्थापित करती है। संजय पठाडे शेषकी लघुकथाएं 'निपुणता', 'एक लक्ष्य', 'पराक्रम से परोपकार', 'बुराई का अंत', 'फूल और तारा' इत्यादि बालपन के आस्तित्व को अभिव्यक्त करने की सफल कोशिश है। इन लघुकथाओं के माध्यम से वे जीवन का मर्म रचते जाते हैं। संजीव आहूजा लघुकथा में दो टूक कहने को अपनी एक विशेष शैली में पहचान देते हैं।  'जिम्मेदार बचपन', 'महंगे खिलौने', 'खुशी', 'बच्चे', 'हरित क्रान्ति' जैसी लघुकथाओं में बचपन का कोलाज पाठकों के सामने रखते हैं।

      शेख शहजाद उस्मानी की गम्भीरता निरंतरता से लिखी जा रही उनकी लघुकथाओं के माध्यम से पाठकों के सम्मुख आती रहती है। 'परीक्षा सिर पर', 'मिट्ठू का घर', 'अपनी-अपनी ग़रीबी' जैसी लघुकथाओं में उन्होंने बचपने की त्रासद स्थिति को बल देते हुए कथ्यात्मक प्रस्तुति दी है।अपनी लघुकथाओं के जरिए शोभना श्याम नए प्रतिमान गढ़ते हुए बालमन को 'करतब', 'ज़रुरत अपनी-अपनी', 'रिश्ता', 'ख़ुशी' रचते हुए जीवन की दिशा में बचपन को रेखांकित करती है।

      श्रद्धा दीक्षित 'बचपना' में शिक्षा के लिए लालायित मुनिया को केन्द्र में रखा गया है जो अपनी मां के साथ समोसे, पेंसिल, कापी बेचने का काम करती है। 'मासूम ख्वाहिश' में गरीबी और अमीरी के भेद भाव से प्रभावित बचपने को एवं 'गुड टच बैड टच', 'अपनापन' में मासूमियत का अलग संसार रचती है।

      युवा रचनाकारों में हेमंत राणा बाल मनोविज्ञान लिखने में सबसे अधिक कुशलता हासिल है। 'वार्निंग' लघुकथा में जितनी  सहजता से 'धूम्रपान सेहत के लिए हानिकारक होता है' को बुनते हैं उतनी ही सरलता से वे 'गुड़िया', लघुकथा के जरिए लड़कियों का लड़कों को प्रतिस्पर्धा देने की स्वस्थ मानसिकता को चिन्हित करते हैं। 'अलार्म' लघुकथा का संवाद कि, “ममा, हमें पता चल गया था, कि आप और डैडी दोनों की तबियत सही नहीं है, अगर मम्मी डैडी गाड़ी के दो पहिये है तो जरूरत पड़ने पर बच्चे भी तीसरा पहिया बन सकते है...”—यह यथार्थ की धरातल पर वर्तमान समय के बच्चों की सोच है, कारण अब उतने मासूम और बेपरवाह नहीं रह गए हैं| एकल परिवार में चार दीवारों में घिरे बच्चे अब पहले की अपेक्षा में अधिक सजग हैं| इस पुस्तक पर काम करते हुए अच्छा लगा| मुझे गहरा संतोष है कारण पुस्तक में संकलित सभी लघुकथाएं कद में ऊँची एवं व्यापक दृष्टिकोण की परिचायक है| निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि पुस्तक हिंदी साहित्य की  लघुकथा विधा में भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। उपरोक्त सभी बातें एक संपादक होने की हैसियत से नहीं बल्कि एक पाठक की हैसियत से कही है, अतः निवेदन है कि इस सम्पादकीय को मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया ही माना जाना चाहिए|

कान्ता रॉय

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