कहानियों के पोर पोर में निषेचित है जीवन का मनोविज्ञान

 

कहानियों के पोर पोर में निषेचित है जीवन का मनोविज्ञान : 

                                        कान्ता रॉय



 

पुस्तक : मेरी प्रिय कथाएँ
लेखक : राजनारायण बोहरे
पृष्ठ : 168
मूल्य : 349/-
प्रकाशक : ज्योतिपर्व प्रकाशन
पुस्तक समीक्षा : कान्ता रॉय

 

एक मनुष्य का जीवन अनार फल के सामान होता है जिसके अन्दर जीवन की अनगिनत घटनाएँ दानों के माफिक गुम्फित रहती है जो जन्म देती है असंख्य अनुभूतियों को| ये अनुभूतियाँ ही उन संवेदनाओं का संवहन करती है जो किसी कहानी के होने का कारण बनती है| मध्यप्रदेश के दतिया और अशोकनगर के ग्रामीण पृष्ठभूमि में जन्में, पले-बढ़े राजनारायण बोहरे के जीवन पर अपने परिवेश का गहरा असर है, उनकी कहानियों में यह असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है|
राजनारायण बोहरे की मुख्य विधा कहानी है| वे लेखन में पिछले चार दशकों से निरंतरता बनाये हुए हैं| अब तक आपकी चार कहानी संग्रह एवं एक उपन्यास प्रकाशित हो चुकी है| आपने बाल साहित्य में योगदान देते हुए बच्चों के लिए तीन बाल उपन्यास भी लिखे हैं| आपने लगभग चालीस-बयालीस लघुकथा भी लिखी है। साहित्य सेवा हेतु आपको म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार और साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार मिला है। सह असिस्टेंस कमिश्नर, राज्य कर विभाग के पद पर सरकारी सेवा देते हुए आपने दफ्तरों की सियासत को भी करीब से महसूस किया है| आप टेलीफिल्म के निर्माता एवं रंगकर्मी भी रहें हैं, अर्थात बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी होने के कारण आपके दृष्टिकोण का केनवास व्यापक है| हम आपकी कथाओं में देहात, किसान, जंगल के बीहड़, महानगर की जिंदगी, दफ्तरों की राजनीति सहित साधु-समाज का गहन चित्रण देख पाते हैं|
आपकी कहानियों का सौदर्य उसकी आंचलिकता से निखरती प्रतीत होती है| देशज भाषा में संवादों का प्रस्तुतिकरण और मुहावरों का अनोखा प्रयोग आपके सर्जनात्मक लेखन के महत्वपूर्ण अंग है| आपकी प्रत्येक कहानी एक दूसरे से भिन्न है|
मेरी प्रिय कथाएँकहानी संग्रह की दसों कहानियों को पढ़ने के उपरान्त उसके होनेको तलाशने जब कहानी के मूल में उतरने की कोशिश करते हैं तो अतिप्राचीन समय में पहुँच जाते हैं और पाते हैं किस्सागोई की एक लम्बी यात्रा| वैदिक युग में जो कथा कहलाती थी वह आख्यानों, उपाख्यानों से होती हुई वृत्त, इतिवृत, वार्ता, चरित भी कहलाई| उन्नीसवीं सदी की शुरुआत इंसा अल्लाह की कहानी रानी केतकी की कहानीसे होती है और अंत सरस्वती के प्रथम अंक में प्रकाशित किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी इंदुमतीसन 1900 से। दरअसल इस सदी के अंत से हिंदी कथा साहित्य अपनी दिशा बदल रही थी| अंग्रेजी के शार्ट स्टोरीके प्रभाव से प्रभावित कहानियों को सरस्वतीपत्रिका ने लघु आकारीय रचना होने के कारण ही प्रोत्साहित किया था|
अब सोचती हूँ कि सन् 1893 में बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा अगर 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' का गठन नहीं किया होता और सन 1900 में इसके द्वारा सरस्वती पत्रिका अस्तित्व में नहीं आई होती तो हिन्दी साहित्य में आधुनिक कहानी युग की शुरुआत क्या कभी हो पाती? क्या हमारे सामने मानव जीवन की सच्चाइयों को बयान करने वाली संवेदनाएं इस तरह कहानी के रूप में विश्लेषित हो पातीं? इंटर के तीन युवाओं द्वारा की गयी एक छोटी सी पहल काशी नागरी प्रचारिणी सभाहिन्दी साहित्य में अवर्चनीय योगदान का जरिया बना|
मैंने कहानी को इतना भर जाना है कि, वर्तमान की घटनाएँ ही भविष्य का विकास करती है| ये घटनाएँ मनुष्य के जीवन की समस्याओं, जो सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर होती है, उसको अभिव्यक्त करती है| क्योंकि समस्याएँ नजर आएगी तभी तो निराकरण संभव होगा|
जब सुनाने वाले का सम्बन्ध सुनने वाले से बनेगा जो जीवन की किसी घटना को नाटकीयता के साथ आदि, मध्य और अंत की स्थितियों से गुजरते हुए ले जाने में समर्थ होगा, वही श्रोता और श्रवयिता के बीच पारंपरिक सम्बन्ध बनाएगा| संवेदनात्मक उभार रचना की उपादेयता को सिद्ध करती है और सार्थकता भी| हिन्दी कथा साहित्य की तीनों विधाओं के पोषक राजनारायण बोहरे कहानीकार के साथ ही एक सशक्त उपन्यासकार भी हैं| मैंने पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कहानियों को पढ़ते हुए बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी के शुरूआती दौर में उपजी असामाजिकता को बतौर पाठक जाना और समझा है|
राजनारायण बोहरे सामंती सोच से उपजी विसंगतियों को पूरी विश्वसनीयता से रेखांकित करते हैं| अस्थान और मुहिम जैसी कहानी अपनी तथ्यात्मकता के कारण ही पाठकों को अधिक चकित करती है| ‘मेरी प्रिय कहानियाँउनके पाठकों की भी प्रिय कहानियाँ बन गयी है, कारण पुस्तक में संग्रहित सभी कहानियाँ जीवन की कठोर धरातल पर अपने समय की कहानी है| घटना प्रधान होने के कारण प्रायः सभी कहानियों की शुरुआत एक जिज्ञासा से होती है| जैसे कि चंपा महाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा/ मृगछलना / गवाही / बाजार वेब / मलंगी / अस्थान / भय / डूबते जलयान / गोस्टा / सहित मुहिम कहानियों में कहीं भी कहानीकार ने न सुखान्त रचने की कोशिश की है न ही कहीं कोरा आदर्शवाद स्थापित किया है| बुन्देली मिटटी, देहात का भोलापन और सिंध का मीठा जल यथार्थ के परिपाटी पर बुना हुआ ऐसा सुख और दुःख का झुलना है जिनमें प्रेमचंद, जैनेन्द्र और अज्ञेय की परम्परा झलकती है|
मेरी प्रिय कथाएँराजनारायण बोहरे की दस कहानियों का एक वृहत दस्तावेज है जिसमें बुंदेलखंड महकता है| बुन्देली संवादों में रची-पगी चम्बल के आस पास की सामाजिक परिस्थियां और मानवीय व्यवहार कहानियों का विषय है| स्त्री मनोविज्ञान को भी कहानियों में रेखांकित किया गया है| कथाओं को पढ़ते हुए मेरा जुड़ाव पात्रों के साथ होता जाता है| कालका भैया, चंपा महाराज, मलंगी, बाबा ओमदास, अन्नपूर्णा भाभी, परेश, नीरनिधि साहब, प्रोफ़ेसर रवि बाबू, दिवा, रघुवंशी सुबह-शाम मेरे मोहल्ले के आसपास मुझसे अनायास ही टकराने लगते हैं|
वैसे भी कहा गया है कि किसी कहानी को पढ़ते ही जब वह आपकी भावनाओं पर असर करने लगे तो समझ लीजिए कि वह एक सफल कहानी है। मेरी प्रिय कथाएँसफल कहानियों का ऐसा अनुपम संसार है जहाँ प्रेम है, मन का भटकाव है, नैतिक पतन और विद्रोह भी है| दफ्तरों में राजनीतिक दखल, भ्रष्ट सरकारी तंत्र से जूझता आदर्शवाद, किसानों की समस्याओं पर सामूहिक चिंतन की सहज व्याख्या है| ग्रामीण परिवेश में स्वार्थी प्रवृत्तियों की बलि चढ़ती सामूहिक चेतना का आन्दोलन गोष्टामें नजर आता है| ढ़ोरों को चराने की एकजुट होकर बारी बारी से गाँव वालों द्वारा गोष्टा बनने की परम्परा| यह मिलजुल कर काम करने की सहकारी नीति है जो प्राचीन समय से चली आ रही है| महीने में एक दिन के लिए अपनी बारी से बचने के लिए जो चालाकियाँ की जाती है, उन मनोविकारों को इस कथा में बुना गया है| अहमन्यतावादी सोच ही ऐसी स्वस्थ परम्पराओं को खत्म होने पर विवश करती है| ग्रामीण अंचल की कल कल करती मीठे झरने सी झरती बोलियों को राजनारायण बोहरे ने मानों गद्य के इस मञ्जूषा में सदा के लिए संरक्षित कर लिया है, कारण शायद यह हो सकता है कि लेखक जानते हैं कि भूमंडलीकरण के प्रभाव में ये बोलियाँ आने वाले सालों में तिरोहित हो प्राचीनतम कहलाई जा सकतीं हैं|
मैंने कई वर्ष पूर्व अंतर्जाल पर कहीं एक कहानी पढ़ी थी 'बाजार वेब'। आज फिर से उसे इस पुस्तक में पढ़ रही हूँ| रोचक तरीके से इसे बुना गया है| कहानी को पढ़ते ही मेरे जेहन में जानी-पहचानी कई घरेलू महिलाएँ वहाँ विचर रही हैं। वह बाजारवाद का शुरूआती दौर था जब कई कम्पनियों ने घरेलू महिलाओं को घर में बैठ कर लाखों रुपया कमाने के ख्वाब दिखाकर बिजनेस में उतार दिया था। बिजनेस यानि सेल्समैन / सेल्सगर्ल्स जैसा ही कुछ| मेरी निकट की तीन दोस्त प्रभावित हो, इसमें उतार ली गयी थी। इस बात को सालों हो गए हैं। उक्त कंपनी के बड़े-बड़े वादे और हमारी उन सखियों के इरादे, मैंने तो न तब लाखों में खेलते उनको देखा, न अब। हाँ, उन कम्पनियों ने सामान्य वस्तुओं को असामान्य ऊंची कीमत पर उनके हाथों अपने लोगों में बिकवा कर अपने वारे न्यारे जरूर किए। दरअसल दोस्ती का मान रखते हुए हमने कुछ सामान उनसे खरीदकर उनके व्यवसाय को आगे बढ़ाने में मदद की।
कहने का आशय यह है कि लाखों कमाने की इच्छा घरेलू महिलाओं में आर्थिक परिस्थिति खराब होने के कारण नहीं आती है, बल्कि बात-बात में घरवालों से ताना सुनने की वजह से आती है। दरअसल समाज-परिवार में यह धारणा बनी हुई है कि जो बाहर जाकर कमाकर लाएगा, वही होशियार कहलाएगा। कमाऊ व्यक्ति से घर चलता है। कमाऊ होना उनके जीवन और व्यक्तित्व को सार्थक बनाने में मदद करेगा, यह सोच स्त्रियों पर थोप दी जाती है| स्त्री अपने अंदर की असीम क्षमताओं को जानती है, इसलिए वह कमाऊ बनने के लिए भी घरेलू उपाय ढूंढने लगती हैं। चेन सिस्टम मार्केटिंग सहित अन्य सभी व्यवसाय जो वह घर से करना चाहती हैं इसके लिए वह अपने आस पड़ोस, रिश्तेदार, जान-पहचान एवं अपने दोस्तों की मदद से जारी रखना चाहती हैं। मार्केटिंग का अधकचरा ज्ञान उक्त कम्पनियाँ उन्हें ट्रेंनिंग के नाम पर उपलब्ध करवाती हैं| जिसके कारण वे ओपन मार्केट में अपना प्रेजेंटेशन नहीं दे पाती हैं| रिश्तों में कई तरह की विसंगति पैदा होना, उनमें बाजारुपन जैसी कारणों से बाजार वेब जैसी कहानी जन्म लेती है।
घर को मन्दिर स्त्री बनाती है| स्त्री उस मन्दिर की पुजारी होती है, जहाँ परिवार के सदस्य उसके भगवान् होते हैं| अचानक स्त्री को एहसास दिलाया जाता है कि पुजारी होना सामान्य पारंपरिक अवस्था है। उसको ललकारा जाता है कि इसमें कोई विशेषता नहीं है| वह विशेष होने की मंशा से जब साप्रयास अति आधुनिक होने की कोशिश करती है तो स्थिति अन्नपूर्णा भाभी की तरह ही हास्यास्पद हो जाती है। आधुनिकता पहनावे से नहीं बल्कि विचारों में परिपक्वता एवं गम्भीर चिन्तन से आती है। घरेलू महिलाओं की महत्वाकांक्षाओं को लेकर यह कहानी बुनी गई है। आधुनिक दिखाई देने से बिजनेस बढ़ेगा। यह सोच मैनेजमेंट के फंडे में आजकल शामिल है। जबकि विषय विशेष पर दक्षता हासिल करने के उपरांत, नॉलेज बढ़ने के साथ ही व्यक्तित्व में आधुनिकता स्वतः ही परिलक्षित होने लगता है। अन्नपूर्णा भाभी के पात्र में जो महिला कहानी में है वह पारिवारिक जीवन की धुरी है। रसोई में स्वादिष्ट भोजन बनाने वाली अब कम्पनी की सेल्सगर्ल्स बन कर ग्राहकों को पटाने के लिए सारे नुस्खे आजमा रही है। पहले जहां बीमा कंपनी के एजेंट वर्मा साहब के उनके घर आने पर उनसे वास्ता नहीं था, वहीं आज वह खुलकर बड़े अपनेपन से बात करने में लगी हुई थी। चरित्र में ऐसा बदलाव अपने आप में विसंगतिपूर्ण है| जम्बो कम्पनी का एजेंट जो अन्नपूर्णा भाभी का रिसोर्स पर्सन था, वह करीबी मित्रों सा व्यवहार करता नजर आता है।
'खुद को ठीक से ताकने का मौका दे रही थी।' - इस वाक्य में एक बड़ी उथल-पुथल सामने आ रही है। जब दूसरे दिन अन्नपूर्णा भाभी अपना बिजनेस बढ़ाने वर्मा साहब के घर तक पहुंच जाती है तो उनके लटके झटके से प्रभावित बीमा एजेंट वर्मा साहब को अपनी पत्नी शुभा कमतर दिखाई देने लगती है। प्रश्न है कि प्रोडक्ट बेचने के लिए जिस तरह की सम्मान की चाहत में अन्नपूर्णा भाभी घर से बाहर निकलती हैं, क्या समाज में उस तरह का सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं कर पाती हैं? नहीं, नहीं मिल पाता है वह सम्मान उनको।
'आदमी तो ब्लफ दे सकता है औरत नहीं।'---जम्बो कम्पनी का एजेंट मनीराम का फेंका हुआ यह एक ऐसा जाल है जिसमें व्यापार का सोर्स अपने करीबी होते हैं- आपकी वजह से ही तो गुप्ताजी के डाउनलाइनर्स की फैमिली को इस बिजनेस और प्रॉडक्ट्स में विश्वास होगा।यानी व्यापार प्रॉडक्ट्स का नहीं बल्कि विश्वास का करना है। मनीराम जैसे लोगों के दिखाए गए सपने का जादू में गिरफ्त लोगों को जब तक जमीनी हकीकत मालूम पड़ती है तब तक ये अपनी कमाई कर वहां से हवा हो चुके होते हैं। बाजारवाद ने इंसान को भी प्रोडक्ट और प्रोजेक्ट बना दिया है।
भूमण्डलीकरण के इस नए दौर में बहुत कुछ बदला है।....जिस चीज के लिए जो जगह निश्चित की गई है, अब वो केवल नहीं मिलती, सब जगह मिल जाती है।..... चीजें तेजी से अपनी जगह बदल रही है।... बाजार केवल बाजार तक सीमित नहीं रह गया...! अब हम जैसे घरों में बाजार स्वयं घुस आया है.... अपने पूरे संस्कार, आचरण, आदतों और बुराइयों के साथ।कहानी में प्रयुक्त ये संवाद तरक्की के लाभ हानि का बही खाता एवं पूरी कहानी का सार भी है|
मलंगीएक कुतिया की प्रेम कहानी है जिसमें उसने अपनी जाति से बाहर जाकर एक लंगूर से प्रेम किया। मोहल्ले वालों के दिए अपमान, पीड़ा और तिरस्कार सहकर भी वह लंगूर से प्रेम करने का साहस करती है। प्रेम में पगी रची-बसी मलंगी दुनिया की सुधि बिसराकर वह लंगूर के ईर्द-गिर्द घूमती रहती है। बाहर कहीं से आया लंगूर भी उसकी चाहत में वहीँ का होकर रह जाता है| मलंगी अपने मोहल्ले में सबकी चहेती थी लेकिन जबसे वह प्रेम में पड़ती है, लोगों की नजर में छिनाल बन जाती है। क्योंकि कुत्तों के साथ उसका सहवास नैसर्गिक था। उसको निभाना उसका सामाजिक दायित्व था।
बांटी हुई रोटी मनुष्य ही नहीं बल्कि दो विजातीय प्राणी के बीच मैत्री भाव उत्पन्न कर सकता है, इस कहानी में दृष्टिगोचर है| प्यार में मिल बांट कर खाना-रहना, लंगूर और मलंगी के बीच इस प्रेम से मनुष्यों को ऐतराज है। वे नित नए जतन करते हैं इनको भिड़ाने के लिए। लेकिन प्रेम में लंगूर के साथ मलंगी मस्त है| वह जीवन का सुख भोग रही है| कुतिया ने परम्पराओं से बाहर जाकर अपने लिए एक उन्मुक्त जीवन चुन लिया था इसलिए मलंगी की आदतों में परिवर्तन होना लोगों को चकित करता था| बिना बात भौंकना, हमला करने, लम्बी दूरी के छप्परों पर छलांग लगाने जैसे साहसिक कार्य करना, उसने यह लंगूर के लिए सीखा था| 'दरअसल मैं तुमसी हो जाउं' का भाव उसके मन में उपजा था|
इस कदर प्यार की बारिश हो के जल-थल हो जाउं
तुम घटा बनके चले आओ, मैं बादल हो जाउं’ -- राहत इंदौरी का ये शेर इसे समझने के लिए पर्याप्त है| प्रेम में डूबी हुई मलंगी के जीवन में उस वक्त तूफान आता है जब नगरपालिका वाले लंगूर को पकड़ने आते हैं। अपनी जान बचाने के लिए भागता लंगूर और उसके पीछे पीछे छप्परों पर दौड़ती मलंगी। बदहवास हालत में लंगूर के लम्बी दूरी की छलांग पर पीछे से साथ भागती मलंगी जब अपनी कूव्वत से बाहर जाकर जान की परवाह छोड़ कर जब छलांग लगाती है तो ऊंचाई से जमीन पर गिर कर तड़पने लगती है।
इलाज के दो चार दिन बाद टूटी पसलियों और चोट की दर्द से मलंगी ठीक तो हो गई थी पर लंगूर की याद उसके जीवन को रहस्य में डाल गई । पढ़ते पढ़ते यहीं पर आकर महसूस होता है कि मनुष्य और जानवर में बड़ा फर्क होता है। स्वयं के ऊपर बीती को मनुष्य कह-सुन कर बांट सकता है पर जानवरों को यह दुःख मन में ही रखना होता है| शायद यही कारण है कि काटता, नोंचता हुआ वह तमाम उम्र जानवर बना रहता है|
मृगछलना”, युवा मन की एक तरफा प्रेम कहानी है| शादी के माहौल में बड़े भाई की साली मधु की चुहलबाजियाँ युवा परेश के जीवन में प्रेम का बीज बो देती है। जिसे परेश आग है दोनों तरफ लगी हुई जानकरख्वाबों में गोते लगाते हुए एक प्यार का समंदर समझ लेता है| उसकी यादों में लगातार दो वर्षों तक प्रेम की लहरों की अकेले ही सवारी करता रहा, जो अंत में जाकर मृगछलना साबित होता है। दमोह और जबलपुर, मध्यप्रदेश के दो शहर| एक क़स्बाई तौर-तरीकों वाला, तो दूसरा बड़े शहरों सरीखे तामझाम से परिपूर्ण| मधु बड़े शहर की चंचल मन वाली लड़की है| उसका दिल जिस पर आता है उसके प्रति स्नेह खुलकर प्रकट करती है| वह न दोस्तों के लिए सीमाएं बांधती, न ही स्वयं के लिए| जबकि भारतीय संस्कार लड़कियों द्वारा इस तरह के आचरणों को स्वीकार नहीं करता है| किसी लड़के से खुलकर बात करना, उसके साथ घूमना-फिरना, उसको आग्रह पूर्वक अपने घर बुलाना, इन सभी आग्रहों का मतलब प्रेम में पड़ जाना होता है। शायद इन्हीं सोचों की वजह से परेश जब मधु से मिलता था तो उसकी आँखों में झांकने की कोशिश करता, जहाँ उसे मधु की प्यासी-सी आंखें आमंत्रण-सा देती प्रतीत होती थी। स्वर्ण हिरण सा स्वप्न और उसके लिए लालायित मन। जीवन जब नवीनता के लिए प्रेरित होता है तो यह सीधे तौर पर क्रियान्वित नहीं होता बल्कि इसकी गति वक्र होती है। पढ़ते हुए पाठकों का हृदय वेदना से तड़पने लगता है। मिलन को आतुर परेश और उसकी नित नई मिलन की कामना के लिए विविध जतन, पाठक आगे जानने को उत्सुक हो उठता है| परेश का प्रेम, उसकी मनोदशा और प्रेम को पाने के विविध प्रयासों को राजनारायण बोहरे तर्कसंगत तरीके से बुनते हैं।
मलंगीऔर मृगछलना,” दोनों प्रेम कहानी है और दोनों कहानियों में प्रेम हार जाता है। राजनारायण बोहरे की कहानियों में संयोग और वियोग की आकर्षक छवियां दृष्टिगोचर होती है। जीवन का यह कटू सत्य है कि मानव मन कभी संतुष्ट नहीं होता है। वह अकारण ही असंतोष में डूबा रहता है और अपने इस असंतोष की वजहों को तलाशने और उसकी पूर्ति में सारा जीवन बिता दिया करता है।
मृगछलनाकहानी पाठकों को भी लेखक द्वारा रचे हुए प्रेम के सम्मोहन, उसके मायाजाल में पूरी तरह से गिरफ्तार कर लेता है| बेशक यहाँ भी राजनारायण बोहरे अपनी जादूगरी दिखाने में कामयाब हुए हैं| कहानी में बेशक कल्पनाओं को बुना गया है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कथ्य के लिए तैयार किए गए तर्क समाज के यथार्थ से लिए गए हैं क्योंकि जीवन में घटी घटनाएं अक्सर हमारे मन-मस्तिष्क में संचित रहती है।
इसी श्रृंखला में अस्थानकहानी की शुरुआत साधू समाज के जयकारे से होती है| ये वही जयकारे हैं जिनके आधार पर गादीधारी आचार्यों द्वारा पाखंडों के लिए विभिन्न रूपों में प्रपंच रचे जाते हैं| कहानी के केंद्र में बाबा ओमदास हैं| ये अपनी इच्छा से बाबा नहीं बने थे बल्कि कुल की परम्परा के निर्वाह के लिए मंझले पुत्र के आजन्म कुंवारा रहनेको, मानने को विवश थे| लेकिन स्त्री की कामना करने वाली मन की चंचलता से मिले अपमान एवं उस कथित पाप को साधू संतो की संगत से मिटाना चाहते थे| उनका मन संन्यास जीवन नहीं चाहता था| वे विवाह की परिणिति के आकांक्षी थे| उनके मन में गृहस्थ जीवन जीने की चाह थी| कुल की मर्यादा और सामाजिक मक्कड़जाल में फंसे बाबा ओमदास जब गाँव त्याग कर महंतों के आश्रम में जाते हैं तो वहाँ साधुओं की करनी देख कर उनका मोह सन्यास पर से उठ जाता है| अस्थान के माध्यम से लेखक ने महंत स्थान की अनैतिक गतिविधियों को भी रेखांकित किया है| बाबा ओमदास के माध्यम से ठाकुर-टहल, नेम-धर्म के आड़ में महन्त किरपादास जैसे अनाचारियों की पोल भी खोली है| साधू-संतों की दिनचर्या पर इतना बारीक़ विश्लेषण कोई संत ही कर सकता है| विश्वास ही नहीं होता है कि राजनारायण बोहरे जैसे गृहस्थ जीवन में रमे इतनी गहनता से साधुओं की गोपनीय जीवन शैली को भेदने में कामयाब हो सकते हैं, कारण सन्यासी समुदाय, समाज में रहते हुए भी सामाजिकता से उनका सरोकार नहीं रहता है| अस्थान गृहस्थ जीवन और संन्यास के बीच मानवीय संबंधों, मूल्यों एवं संवेदनाओं का एक जटिल मगर कच्चा पूल है जिस पर बाबा ओमदास चढ़ते हैं और डगमगाते हुए अंत में पार भी करते हैं| बाबा ओमदास का विषम परिस्थितियों से गुजरते हुए अंत में ये निर्णय करना कि- वे गाँव लौट जाएँगे। तपस्या ही करनी है तो गाँव में करेंगे। लोगों को जगाएँगे, यह भी एक तपस्या है। अपनी जमीन के लिए हक्क के लिए जूझेंगे, लड़ेंगे। हक पाकर कड़ी मेहनत से खेती करेंगे। और..और अगर कोई मिली तो ब्याह भी कर लेंगे खुले आम। इसमें कैसा संकोच! संकोच और लाज तब हो जब चोरी-छिपे कुछ किया जाए। इसी दुराव-छिपाव के भाव को ही तो पाप कहतें हैं न। अपना वेश उन्होंने इसीलिए नहीं उतारा है कि अब गाँव जाकर ही वेश का अन्तिम संस्कार करेंगे।
जुझारूपन से ओतप्रोत यह कहानी अंधभक्ति एवं गलत परम्पराओं का मजबूती से प्रतिकार करती है| कहानी बाबा ओमदास के माध्यम से उम्मीद करती है कि वे सड़ी-गली मान्यताओं से समाज को मुक्त करवाएंगे| धर्म के पाखंड और रूढ़िगत विचारों पर आघात करती कहानी अपने सामर्थ्य के बूते मजबूती से खड़ी है| लेखक कहीं भी अपनी कहानियों में उपदेश देते हुए नजर नहीं आते, न ही खोखले आदर्श रचते हैं।
राजनारायण बोहरे की कहानियों का सम्बन्ध सामाजिक प्रगति से है। अपनी कहानियों के माध्यम से वह सामाजिक व्यवस्था की मीमांसा करते हैं| कहानियों में बचपना है, जवानियां है‌ और 'चेलम्मा .....' जैसी कहानियों में प्रौढ़ावस्था के रंग रे जियाँ भी है। कहानी के पात्र जीवन से जुड़े हुए लोग हैं जिन्हें राजनारायण बोहरे ने करीब से देखा जाना है।
बुंदेलखंड की मिट्टी में जादू है। शायद यहां के पत्थर भी कथाकार हैं तभी तो इन कहानियों में कांकड़-पत्थर भी बतियाते महसूस होते हैं| लूले कक्का, पुजारी देवचंद, परमा खवास, खेता भोई, रतना जैसे पात्रों के सहारे गाँव-देहात का समाज का परिदृश्य नजरों से गुजरने लगता है। लेखक का ताल्लुक देहात से है। देहाती खुरदुरापन कहानियों को ओज देता है। 'चंपा महाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा' में प्रेम न आत्मिक है न आध्यात्मिक। यहां दैहिक सुख है जिसके लिए कालका प्रसाद कच्ची उम्र से ही तरस रहे थे।
चंपा महाराज के बड़े भाई कालका प्रसाद जो सम्पत्ति में आधे के हकदार थे। संवदिया यहां संवाददाता के रूप में लूले कक्का को संबोधित किया गया है। लूले कक्का का यह कहना कि कालका प्रसाद चेलम्मा नर्स की गलबहियां डाले टहलते मिले थे। जात बिरादरी में नाक कटाने जैसी ताना सुनने के बाद से ही चंपा महाराज के दिमाग में हलचल मच जाती है। हिन्दू समाज में वर्ण परम्परा की तरफदारी करते हुए नहीं थकने वाले चंपा महाराज सुनकर स्तब्ध रह गए थे। बड़े भैया की नित नई खबरें सुन सुन कर चम्पा महाराज विचार में पड़ जाते हैं। और विचार करते हुए चिंतित भी हो उठते हैं क्योंकि साठ बीघा जमीन, डाकघर का काम, ऐसे धनाढ्य विधुर को धन के लोभ में कोई भी फांस सकता है| बड़े भाई की प्रेम कहानी सुनकर चंपा महाराज अपने आप से तर्क वितर्क करता है| उनको कालका प्रसाद के चरित्र को लेकर इतना जानते हैं कि बाहर से वैराग्य का प्रदर्शन करने वाले कालका प्रसाद वासनाओं में जकड़े हुए हैं। स्त्री से सम्बंध को लालायित वे कुएं, तालाब, मन्दिर जैसी जगहों पर भी हरकते करते रहते हैं।
अपने स्वार्थपूर्ति हेतु निदान ढूंढने में वह तरह-तरह के कुतर्कों से प्रपंचों को चम्पा महाराज अपने आस-पास गढ़ता है, वह अंत में चेल्लमा नर्स जो उन की जाति-बिरादरी की न होकर केरल मंलयाली समाज की है उस पर भी यह सोच कर सहमति जता देते हैं कि- चलो, जायदाद बची रह गयी तो जाति और समाज भी सम्मान देगा| रूढ़ियों पर प्रहार करने में प्रयोग करने के लिए चंपा महाराज के रूप में प्रस्तुत मानसिकता का प्रतिपादन कहानीकार तत्वों को शामिल करते हुए कभी झंडाबरदार के रूप में खुद से लड़ता दिखाई देता है तो कभी सामंती विचारों से उत्प्रेरित हो संघर्ष को आतुर भी हो जाता है। कहानी का शिल्प परंपरागत कहानियों से अलहदा है| अल्लै पल्लै बरसते हुए पैसों का इतना सुंदर बखान इससे पहले कभी पढ़ने को नहीं मिला। यह कहानी कालका प्रसाद की प्रेम कहानी कम और कर्मकांडी पंडित के वैचारिक पतन की कहानी अधिक है। इस संग्रह में एक दफ्तरी कहानी गवाहीभी है जो मानव मन की संकुचित वृत्तियों को रेखांकित करने की कोशिश है।
गवाही”, सरकारी दफ्तरों में रसूखदार लोगों के प्रभाव की कहानी होने के साथ ही दफ्तर के तनावपूर्ण वातावरण, उससे उपजी विकट स्थिति की भी कहानी है| विद्युत मंडल में राजनैतिक पिट्ठुओं की गुंडागर्दी से उबाल खाते बाबुओं की स्थिति को लेकर बुनी गई है। विद्युत विभाग के उस ऑफिस के साहब नीरनिधी का कसूर इतना ही था कि उसने रसूखदारों को अतिरिक्त मान आदर देने से इंकार कर दिया था, जिसकी वजह से उसे जान से हाथ धोना पड़ा। बिजली कटौती का लफड़ा जिसमें नीरनिधी साहब की कोई गलती नहीं थी लेकिन आदर्शों की राह पर चलने की कोशिश करने वाला अपनी जान से जाता है| सच्चाई के लिए लड़ने वाला दूसरा जब गवाही देने को ठानता है तो वह अपराधियों से भी बदतर हालातों से गुजरता है| गलत के खिलाफ आवाज उठाने की सजा मानसिक पीड़ा उठाने से मिलती है| पीछा किया जाना, रात बिरात फोन पर गन्दी गालियाँ और जान से मारने की धमकियाँ आने से मिलती है| पत्नी का सुहाग के नाम पर भीख मांगना, जैसी दृश्य, विवशता की हदें है| गवाही देने के लिए उसके नाम लिखाने के बाद से ऐसी मानसिक तनावों से गुजरना पड़ता है। सिद्धांतों पर अड़ा गवाह के लिए नामित अंदर और बाहर दो जगह एक साथ लड़ाई करता है| -
-“मेरी गवाही पर सारे मीडिया की निगाह थी। वैसे इस प्रकरण के प्रति हर आदमी का अलग नजरिया था। पुलिस के लिए फालतू का लफड़ा, नामजद हुए लोगों की आगामी पॉलिटिक्स को आर पार का मुद्दा, नीरनिधी साहब के परिवार की डूब गई नौका को उबारने का यत्किंचित सहारा और मेरे लिए जीवन मरण का प्रश्न।
बाबुओं का आपसी सहयोग होकर भी न के बराबर| एक दूसरे से जुड़े हुए लोगों की गवाही देने की इच्छा| अपने मन का अनुसरण करना कभी कभी कितना मुश्किल हो जाता है। पुलिस, पत्रकार और सरकारी वकील, दूसरी तरफ रूलिंग पार्टी के सदर, खिलाफी पार्टी के सदर और तमाम हुक्मरान, नीरनिधी साहब की पत्नी, सबको एक साथ गुंथकर वर्तमान समाज की कुव्यवस्थाओं को चित्रित कर दिया है| कहानी में व्यंग्य का पुट किस तरह झलकता है इसकी बानगी देखिये जरा -
इलाके में रूलिंग पार्टी के एक बड़े नेता बेहद साफ दिल के आदमी थे, उन्होंने नीरनिधि साहब की पत्नी से साफ साफ कहा, "देखो मिसिज नीरनिधि, आप हिम्मत रखिए, भले ही हमारी सरकार न हो, आपके पति की मौत से जो नुकसान हुआ हम उसकी भरपाई कराएंगे, आपके बेटे को हम नौकरी दिलाएंगे। और रहा मामला नीरनिधि साहब के मौत का सो ये तो एक हादसा था जो न चाहते हुए हो गया, ईश्वर की इच्छा थी कि नीरनिधि साहब की मौत आ गई थी, वे हमारे युवा नेता के हाथों न मरते तो रास्ता चलते ठोकर खाते और गिर कर मर जाते। अब होनी को कौन टाल सकता है।
एक चश्मदीद गवाह, जिसने हिम्मत करके गवाही देने के लिए आगे बढ़ता है| जो आदमी गलत का विरोध करने के लिए कमर कस लेता है कि हर हालत में मुलजिमों को सजा दिलवाऊंगा, वह अंत में हार कर हथियार डाल देता है। सवाल यह है कि वह किससे हारता है? धमकियों से? या अपने परिवार, बच्चों को अनाथ होने से डर कर या अपने अंतर्द्वंद से या उस सिस्टम से जिसके कारण अन्याय के विरुद्ध कोई खड़ा नहीं हो पाता है-न शासन, न प्रशासन, न जनता और न ही चौथे स्तंभ का ढोल पीटने वाला मिडिया।
हताशा का वह क्षण जब वह सोचता है कि बयान देने के कारण सम्भवतः अपनी जान से हाथ धोना पड़े, या पत्नी के साथ कोई अनहोनी, या किसी बच्चे का अपहरण, सुरक्षा की ग्यारंटी देती पुलिस उसे या उसके परिवार को क्या बचाती जब वह अपने ही देश की प्रधानमंत्री को नहीं बचा सकी। फिर एक ऐसा वक्त आता है कि उसे लगने लगता है कि वह दोनों तरफ से फंस चुका है। नीरनिधि साहब की बीवी और यूनियन वाले दोनों न्याय के लिए उसकी गवाही देने के लिए मुंह ताक रहे हैं। ऐसी दुविधाजनक परिस्थिति में उसकी घरेलू बीवी गवाही देने से बचने हेतु जब नुस्खा तैयार करके देती है तो वह मानों जी उठता है| यह कहने में संकोच महसूस नहीं करती कि जीवन का असली संघर्ष हारने के साथ ख़त्म नहीं हो जाता है, दरअसल यहीं से शुरू होती है एक नए समाज की गाथा जिसमें क्षोभ और निराशाजनक मनोविकृतियाँ निषेचित होती है| राजनारायण बोहरे की कहानियां भारतीय समाज को सूक्ष्मता से विश्लेषित करती है| इन कहानियों के पोर पोर में निषेचित है जीवन का मनोविज्ञान|
भारतीय संस्कृति का इतिहास गुरु-शिष्य परम्पराओं की कथाओं से भरा पड़ा है| भारतीय समाज में वैदिक काल से शिक्षकऔर विद्यार्थी का गहरा सम्बन्ध रहा है| गुरु वशिष्ठ और राम, ऋषि संदीपनी और कृष्ण, परशुराम और कर्ण, अर्जुन और द्रोणाचार्य, विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस ऐसे अनेकों उदहारण हैं जहाँ गुरु के प्रति मर्यादा का पालन शिष्यों द्वारा किया जाता रहा था| जिस समाज के मन मस्तिष्क पर गुरु-शिष्य के बीच मर्यादित अटूट संबंधों की कथाएँ अंकित है उनके लिए कहानी भयएक विषम परिस्थिति है|
गुरु के प्रति निष्ठा, आदरभाव को इस कहानी ने पुनः पोषित करने का प्रयास किया है| राजनारायण बोहरे दोनों के बीच संतुलन रखते हुए यहाँ कथ्य को साधते प्रतीत होते हैं| वैभव का अहंकार और निज स्वार्थ के वशीभूत छात्रों में ये भावनाएं वर्तमान शिक्षानीति में कहीं बहुत पीछे छूटता दिखाई देता है| दरअसल अब नैतिक पतन का दौर चल रहा है| मर्यादाएं धूमिल हो रही है| इन्हीं अमर्यादित परिस्थितियों से निकलकर आती है कहानी भय’ | ये कहानी सहृदय, दयालु एवं सिधान्तवादी प्रोफ़ेसर रवि की ही नहीं बल्कि कॉलेज केम्पस में शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से आने वाले सैकड़ों छात्रों की भी है| कहानी में भय शुरू से अंत तक व्याप्त है| भय हार जाने का, भय गिरा दिए जाने का, भय मार दिए जाने का और भय आने वाली नस्लों का भी है| यह कहानी भय को पराजित करने की भी है|
दरअसल विश्वविद्यालयों में राजनीति के प्रवेश ने बहुत नुकसान पहुँचाया है|
प्रोफेसर रवि के मन का भय शारीरिक चोट झेलने से नहीं है बल्कि उन अपमानजनक स्थितियों की भयावहता से है जिनकी उन्हें आशंका है| विपरीत परिस्थितियों में अनिष्ट अंदेशे से घिरे मन:स्थिति की जटिलता का कारण परिक्षा के दरमियान नकल करते छात्र को पकड़ने से उपजी है| कहानी के इस वाक्यांश को पढ़ कर उस क्षण विशेष के अंतर्द्वंद्वों को समझा जा सकता है-
- “खुले आम पर्ची रखकर आखिर क्या दिखाना चाह रहा है यह छात्र, शायद खुद की ताकत या फिर प्रोफ़ेसर की कमजोरी।
डूबते जलयानकहानी ने मेरे सामने एक सन्नाटे की मोटी लकीर खींच दी है| पारिवारिक पृष्ठभूमि पर रक्त संबंधों में उग आये स्वार्थ के कांटे घटनाक्रम के दरमियान चुभते हुए महसूस होते हैं| कहानी के केंद्र में दिवा है जो आधुनिक सुविधा संपन्न परिवार की बेटी हुआ करती थी और अब एक अति सामान्य घरेलू महिला है जिसका पति डॉक्टर है और छत्तीसगढ़ में अकेले रहता है| यहाँ दिवा बीमार अपाहिज ससुर और तीसरे वर्ष की डॉक्टरी पढाई में लगी ननद रश्मि के साथ गृहस्थी का बोझ अकेले ढोती है| उसके मन में पति के साथ अकेले कुछ क्षण बिताने की छटपटाहट को व्यक्त किया गया है| उसके चंचल स्वाभाव के विपरीत गंभीर पति का व्यवहार मिलन की कामना में बाधा बनता जाता है, जिसे उसके मन में अतृप्ति, अनबुझी प्यास के रूप में चिन्हित किया गया है| मन के विचलन रेखा पर खड़ी कर दी गयी उस स्त्री के जीवन में विवाह से पूर्व बने सम्बन्ध का आगमन, एक त्रासदपूर्ण स्थिति है|
विचलन रेखा पर खड़ी दिवा की दुविधाओं को इस एक पंक्ति में किस तरस विश्लेषित किया है कि, “कुछ आगमन ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल जाए तो निष्कृति का बोध भी| शब्दों से स्वीकृति देने की निर्द्वन्द्वता और सहस नहीं है मुझमें दीपू|.....”
इंसान टूटता वहीँ से है जहाँ से उसे ताना जाता है| गृहस्थी के बोझ से दिवा उतनी नहीं तनती जितनी कि पति के अनदेखेपन से| स्त्री की जरुरत सिर्फ रोटी, कपडा, मकान तक सीमित समझने वाली पितृसत्ता ही पोषक है , ऐसी परिस्थितियों की | सच कहूँ तो पहली बार कहानी पढ़ते हुए इसके अंत को देखकर विचलित हुई थी| स्त्री होने के नाते यह होना भी चाहिए था क्योंकि जिस स्त्री को भारतीय समाज ने गढ़ा है , वह यहाँ उस गढ़े हुए आकार से बाहर निकल रही है|
इस कहानी का कथ्य वाक्यों की ओट में कहीं पीछे अनकहे में मुखरित है| यह कहानी इस बात की पुष्टिकरण करती है कि स्त्री सृष्टि की आधारशिला है यह बात पुरुष सनातन काल से मानता रहा है| फिर भी व्यावहारिक दृष्टिकोण से वह उसे दोयम दर्जे में रखता आया है|
मुखबिरसे मुहिमया मुहिमसे मुखबिर”? मुखबिर उपन्यास अब तक नहीं पढ़ पाई , लेकिन इसकी कई समीक्षाएं पढ़ी है मैंने| इस उपन्यास के मूल या बीज रूप में लिखी गई राजनारायण बोहरे की कहानी 'मुहिम' की जमीन जेहन में उतर आई। पुलिस और डाकूओं के बीच अपनी साँसों की खैर मनाते बंधक बने बस यात्री से पहले पकड़ बने फिर पुलिस के मुखबिर -गिरराज और लल्ला। कहानी में प्रामाणिक रूप से डाकुओं की जीवन शैली, रहन-सहन, खान-पान परिदृश्य, कोड-बर्ड, गाली गुफ्तार तो इस कदर शामिल है, मानो राजनारायण बोहरे ने बरसों कोई गिरोह संचलित किया हो, तो पुलिसिया कार्यवाही और कोडवर्ड्स भी ऐसे कि लगे कि यह आदमी पुलिस अफसर रह चुका होगा| गज़ब का ओबज़रवेशन है लेखक का। पहाड़ियों पर मिले सुराग और निशानों की टोह लेती हुई डाकुओं तक पहुंचने की मुहिम के पीछे चल रही थी एक अंतर्कथा, जो कहानी में शामिल न होकर भी कहानी के केन्द्र में होती है- केतकी नाम की निरपराध और अबोध लड़की की व्यथा कथा। चंबल घाटी में उभरते दलित डाकुओं की लगभग सवर्ण शैली बताती है कि हर आदमी जीत के बाद विरोधी की तरह बन जाता है। यह जो रचने की प्रक्रिया है, जिसमें लेखक प्रत्यक्ष रूप में कुछ न कहकर भी मानवीय आकांक्षाओं के जरिए बहुत कुछ कह सुन लेते हैं, यही विलक्षणता बोहरे जी की अपने समकालीन कथाकारों में अलग मुकम्मल पहचान बनाती है।
सब बातों का सार यही है कि समकालीन कहानियों की मुख्यधारा में सामान्य जीवन की असामान्य गाथाओं की सरल गाथा है मेरी प्रिय कथाएँ| गंभीर विवेचना के सतह पर खड़ी कहानियों के केंद्र में मानवीय व्यवहारों के सैकड़ों शेड्स हैं जो सोचने पर विवश करते हैं क्योंकि भारतीय समाज की आन्तरिकता का ऐसा सहज चित्रण बामुश्किल ही अन्य कहानीकारों में देखने को मिलता है|

कान्ता रॉय

निदेशक, लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल

सम्पर्क : 54\A, सेक्टर - C, 

बंजारी, कोलार रोड, भोपाल (म.प्र.)- 462042

मो. 9575465147, 

EMAIL : roy.kanta69@gmail.com

 

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